मेरे प्रिय देशवासियो, पाश्चात्य लोगों के लिए मेरा सन्देश ओजस्वी रहा है; तुम्हारे लिए मेरा सन्देश उससे भी ओजस्वी है। मैंनें यथाशक्ति प्रयत्न किया है कि नवीन पश्चिमी राष्ट्रों के लिए पुरात्न भारत का सन्देश मखरित करूँ---भविष्य निश्चित रूप से पताएगा कि मैंनें यह कार्य सम्यक रूप से किया या नहीं ; पर उस अनागत भविष्य के सशक्त-सवल स्वरों का कोमल पर सपष्ट मर्मर अभी से सुनाई देने लगा है ---भावी भारत का सन्देश वर्तमान भारत के लिए; और जैसे-जैसे दिन वीतते हैं,यह मर्मर ध्वनिसबलतर-सपष्ट होती जाती है।
जिन विविध जातियों को देखने समझने का सौभाग्य मुझे मिला, उनके वीच मैंनें अनेक संस्थाओ, प्रथाओं, रीति-रिवाजों और शक्ति तथा बल की अदभुत अभिव्यक्तियों का अद्ययन किया है ; पर इन सबमें सर्वाधिक विस्मयकारी यह उपलब्धि थी कि रहन-सहन, प्रथाओं, संस्कृति और शक्ति की इन बाह्या विभिन्ताओं ---इन उपरी विभेदों के अन्तराल में, एक ही प्रकार के शुख-दुख से, एक ही प्रकार की शक्ति और दुर्बलता से वही महौ-जस मानव ह्रदय स्पंदित है।
शुभ और असुभ सर्वत्र है, और दोनों के पलड़े अदभुत रूप से बराबर हैं। पर सर्वत्र सर्वोपरि है मनुष्य की महिमामयी आत्मा, जो कि उसकी ही भाषा में वोलने वाले किसी भी व्यक्ति को समझने से कभी नहीं चूकती। हर जगह ऐसे नर नारी हैं जिनका जीवन मानब जाति के लिए बरदान है और जो दिव्य सम्राट अशोक के इन शब्दों को सत्य सिद्द करते हैं : ‘प्रत्येक देश में ब्रह्मणों और श्रमणों का निवास है।’
केवल शुद्ध और निष्काम आत्मा द्वारा ही सम्भव प्रेम के साथ मेरा स्वागत-सत्कार करने वाले उन अनेक सह्रदय पुरूषों के लिए मैं पाश्चात्य देशों का अभारी हूँ । पर मेरे जीवन की निष्ठा तो मेरी इस मातृ भूमि के लिए अर्पित है। और यदि मुझे हजार जीवन भी प्राप्त हों, तो प्रत्येक जीवन का प्रत्येक क्षण, मेरे देशवासियो, मेरे मित्रो, तुम्हारी ही सेवा में अर्पित रहेगा।
क्योंकि मेरा जो कुछ भी है ---शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ---सबका सब इस देश की ही देन है; और यदि मुझे किसी अनुष्ठान में सफलता मिली है तो कीर्ति तुम्हारी(देशवासियों की) है मेरी नहीं। मेरी अपनी तो केवल दर्बलताएँ और असपलताएँ हैं; क्योंकि जन्म से ही जो महान सिक्षाएँ इस देश में व्यक्ति को अपने चतुर्दिक बिखरी और छायी मिलती हैं, उनके लाभ उठाने की मेरी असमर्थता से ही इन दुर्बलताओं और असफलताओं उत्तपति हुई है।
और कैसा है यह देश! जिस किसी के भी पैर इस पावन धरती पर पड़तें हैं वही, चाहे वह विदेशी हो, चाहे इसी धरती का पुत्र, यदि उसकी आत्मा जड़ पशुत्व की कोटि तक पतित न हो गई हो तो, अपने आपको पृथ्वी के उन सर्वोतकृष्ट और पावनतम पुत्रों के जीवन्त विचारों में घिरा हुआ अनुभव करता है, जो शताब्दियों से पशुत्व को देवत्व तक पहुंचाने के लिए श्रम करते रहे हैं और जिनके प्रादुर्भाव की खोज करने में इतिहास असमर्थ है। यहां की वायु भी अध्यात्मिक स्पंदनों से पूर्ण है।….
यह धरती दर्शन शास्त्र, नीति शास्त्र, और आध्यात्मिकता के लिए, उन सबके लिए जो पशुता को बनाए रखने हेतु चलने वाले अविरत संघर्ष से मनुष्य को विश्राम देता है। उस समस्त शिक्षा-दीक्षा के लिए जिससे मनुष्य पशुता का जामा उतार फैंकता है और जन्म-मरणहीन सदानन्द अमर आत्मा के रूप में अविर्भूत होता है,-पवित्र है। यह वह धरती है जिसमें शुख का प्याला परिपूर्ण हो गया था और दुख का प्याला और भी अधिक भर गया था ; अन्तत: यहीं सर्वप्रथम मनुष्य को यह ज्ञान हुआ कि यह तो सब निस्सार है; यहीं सर्वप्रथम यौवन के मध्याह्न में, वैभव विलास की गोद में, ऐश्वर्य के शिखर पर और शक्ति के प्राचुर्य में मनुष्य ने माया की श्रृँखलाओं को तोड़ दिया।यहीं मानवता के इस महासागर में शुख और दुख, शक्ति और दुर्बलता, वैभव और दैन्य, हर्ष और विषाद, स्मित और आंशु तथा जीवन और मृत्यु के प्रवल तरंगाघातों के वीच, चिरंतन शांति और अनुद्विग्नता की घुलनशील लय में त्याग का राजसिंहासन अविर्भूत हुआ।यहीं इसी देश में जीवन और मृत्यु की , जीवन की तृष्णा की, और जीवन के संरक्षण के निमित किए गये मिथ्य और विक्षिप्त संघर्षों की---महान समस्याओं से सर्वप्रथम जूझा गया और उनका समाधान किया गया।---ऐसा समादान जो न भूतो न भविष्यति---क्योंकि यहां पर और केवल यहीं पर इस तथ्य की उपलब्धि हुई कि जीवन भी स्वत: एक अशुभ है , किसी एक सत तत्व की छाया मात्र। यही वह देश है जहाँ और केवल जहाँ पर धर्म व्यावहारिक और यथार्थ था; और केवल यहीं पर नर-नारी लक्ष्य-सिद्धि के लिए---परम् पुर्षार्थ के लिए साहसपूर्वक कर्मक्षेत्र में कूदे, जैसे अन्य देशों में लोग अपने से दुर्वल अपने ही वन्धुओं को लूटकर जीवन के भोगों को प्राप्त करने के लिए विक्षिप्त होकर झपटते हैं।यहाँ और केवल यहीं पर मानव-ह्रदय इतना विस्तीर्ण हुआ कि उसने केवल मनुष्य जाति को ही नहीं वल्कि पशु, पक्षी, और वनस्पति तक को भी अपने में समेट लिया---सर्वोच देवताओं से लेकर वालु के कम तक, महानतम और लघुतम सभी को मनुष्य के विशाल और अनन्त ह्रदय में स्थान मिला। और केवल यहीं पर मानवात्मा ने इस विश्व का अध्ययन एक अविछिन्न एकता केरूप में किया, जिसका हर स्पंदन उसका अपना स्पंदन है।
हम सभी भारत के पतन के सबन्ध में बहुत कुछ सुनते हैं। एक समय था जब मैं भी इसमें विस्वास करता था। पर आज अनुबव की अग्रभूमि पर खड़ा होकर, बाधात्मक पूर्व परिकल्पनाओं से दृष्टि को मुक्त करके और सर्वोपरि, अन्य देशों के अतिरंजित चित्रों को प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा उचित प्रकाश और छायाओं में देखकर मैं, अत्यन्त विनम्रता के साथ मैं स्वीकार करता हूं कि मैं गलत था। आर्यों के ऐ पावन देश तु कभी पतित नहीं हुआ। राजदण्ड टूटते रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कन्दूक एक हाथ से दूसरे हाथ में उछलता रहा है, पर भारत में राजाओं और राजदरवारों का प्रबाव सर्वदा थोड़े से लोगों को छू सका है---उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा कभी मन्द और अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल और प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है। उन वीसों ज्योतिर्मय शताब्दियों की अटूट श्रृँखला के सम्मुख मैं तो विस्मयाकुल खड़ा हूं, जिनके वीच यहाँ-वहां एकाद धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी को और भी अधिक ज्योतिर्मय बना देती है और इनके बीच इनकी गति में अपने सहज महिमामय पदक्षेप के सात प्रगतिशील है मेरी यह जन्मभूमि---अपने यशोपूरित लक्ष्य की सिद्धि के लिए ---जिसे दरती या आकाश की कोइ शक्ति रोक नहीं सकती पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने के लिए।
हाँ मेरे बन्धुओ, यही गौरबमयी भाग्य(हमारे देश का है), क्योंकि उपनिष्द्-युगीन सुदुर अतीत में, हमने इस संसार को एक चुनौता दी थी : न प्रजयाधनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु: ---‘न तो संतति द्वारा और न ही सम्पति द्वारा , वरना केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।’ एक के वाद दूसरी जाति ने इस चुनौति को स्वीकार किया और अपनी सक्ति भर संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं---पुरानी जातियाँ तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुपता से उदभूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पिस-मिट गयीं और नई जातियां गर्त में गिरने से डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी या युद्ध की, सहिष्णुता की विजय होगी या असहिष्णुता की, शुभ की विजय होगी या अशुभ की, शरीर की विजय होगी या बुद्धि की, सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की। हमने तो युगों पहले अपने इस प्रश्न का हल ढूंढ लिया था और सौभाग्य या दुर्भाग्य के मध्य हम अपने उस समाधान पर दृढ़ारूढ़ हैं और कालान्त तक उस पर दृढ़ रहने का संकल्प किए हुए हैं। हमारा समाधान है :असांसारिकता---त्याग।
भारतीय जीवन रचना का यही प्रतिपाद्य विषय है,उसके अनन्त संगीत का यही दायित्व है, उसके अस्तित्व का यही मेरूदण्ड है , उसके जीवन की यही आधार-शिला है, उसके अस्तित्व का एकमात्र हेतु---मानबजाति का आद्यात्मीकरण।अपने इस लम्बे जीवन प्रवाह में भारत कभी भी विचलित नहीं हुआ, चाहे तातारों का शासन रहा हो और चाहे तुर्कों का ,चाहे मुगलों ने राज्य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने।
और मैं चुनौती देता हूँ कि कोई भी व्यक्ति भारत के राष्ट्रीय जीवन को कोई भी ऐसा काल मुझे दिखा दे, जिसमें यहां सारे संसार को हिला देने की क्षमता रखने वाले आध्यात्मिक महापुरूषों का अभाव रहा हो । पर भारत का कार्य आध्यात्मिक है और यह कार्य रण-भेरी के निनाद से या सैन्यदलों के अभियानों से तो पूरा नहीं किया जा सकता। भारत का प्रभाव धरती पर सर्वदा मृदुल ओस-कणों की भांति बरसा है,नीरव और अव्यक्त, पर सदा धरती के सुन्दरतम सुमनों को विकसित करने वाला ।प्रकृत्य मृदुल होने के कारण विदेसों में जानें---प्रभविष्णु होने के लिए इसे परिस्थितियों के एक सुयोगपूर्ण संघटन की प्रतीक्षा करनी होगी ; यद्यपि अपने देश की सीमा के भीतर इसकी सक्रियता कभी बन्द नहीं हुई । इसीलिए प्रत्येक शिक्षित वयक्ति जानता है कि जब कभी सम्राज्य-निर्माता तातार या इरानी या युनानी अथबा अरब लोग इस देश को बाह्य संसार के सम्पर्क में लाए, तभी व्यापक आध्यात्मिक प्रभाव की एक लैहर यहां से समूचे संसार पर फैल गयी। ठीक यही परिस्थितियां एकवार फिर हमारे सम्मुख आकर खड़ी हो गयीं हैं। धरती और सागर पर अंग्रेजों के यातायात, मार्ग और उस छोटे से द्वीप के निवासियों द्वारा प्रदर्शित अदभुत शक्ति ने एकवार फिर शे, संसार के सम्पर्क में ला दिया है, और यही काम फिर से प्रारम्भ हो चुका है। मेरे शब्दों पर ध्यान दो---यह तो केवल अल्प प्रारम्भ मात्र है ;महान सिद्धियां बाद में उपलब्ध होंगी;यह तो मैं निस्चित रूप से नहीं कह सकता कि भारत के बाहर हमारे बर्तमान कार्य का परिणाम क्या होगा, पर इतना तो मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि प्रत्येक सभ्य देश में लाखों---मैं जानबूझकर कहता हूँ ---लाखों व्यक्ति उस संदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उन्हें भौतिकता के उस घृणित गर्त में गिरने से बचा लेगा, जिसकी आधुनिक अर्थोपासना उन्हें आंक मूंदकर ढकेल रही है ; और नवीन सामाजिक अन्दोलनों के अनेक अग्रणी पहले ही से समझ चुके हैं कि केवल वेदान्त ही अपने सर्वोच्च रूप में उनकी सामाजिक आकांक्षाओं को आध्यात्मिकता प्रदान कर सकता है।
जिन विविध जातियों को देखने समझने का सौभाग्य मुझे मिला, उनके वीच मैंनें अनेक संस्थाओ, प्रथाओं, रीति-रिवाजों और शक्ति तथा बल की अदभुत अभिव्यक्तियों का अद्ययन किया है ; पर इन सबमें सर्वाधिक विस्मयकारी यह उपलब्धि थी कि रहन-सहन, प्रथाओं, संस्कृति और शक्ति की इन बाह्या विभिन्ताओं ---इन उपरी विभेदों के अन्तराल में, एक ही प्रकार के शुख-दुख से, एक ही प्रकार की शक्ति और दुर्बलता से वही महौ-जस मानव ह्रदय स्पंदित है।
शुभ और असुभ सर्वत्र है, और दोनों के पलड़े अदभुत रूप से बराबर हैं। पर सर्वत्र सर्वोपरि है मनुष्य की महिमामयी आत्मा, जो कि उसकी ही भाषा में वोलने वाले किसी भी व्यक्ति को समझने से कभी नहीं चूकती। हर जगह ऐसे नर नारी हैं जिनका जीवन मानब जाति के लिए बरदान है और जो दिव्य सम्राट अशोक के इन शब्दों को सत्य सिद्द करते हैं : ‘प्रत्येक देश में ब्रह्मणों और श्रमणों का निवास है।’
केवल शुद्ध और निष्काम आत्मा द्वारा ही सम्भव प्रेम के साथ मेरा स्वागत-सत्कार करने वाले उन अनेक सह्रदय पुरूषों के लिए मैं पाश्चात्य देशों का अभारी हूँ । पर मेरे जीवन की निष्ठा तो मेरी इस मातृ भूमि के लिए अर्पित है। और यदि मुझे हजार जीवन भी प्राप्त हों, तो प्रत्येक जीवन का प्रत्येक क्षण, मेरे देशवासियो, मेरे मित्रो, तुम्हारी ही सेवा में अर्पित रहेगा।
क्योंकि मेरा जो कुछ भी है ---शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ---सबका सब इस देश की ही देन है; और यदि मुझे किसी अनुष्ठान में सफलता मिली है तो कीर्ति तुम्हारी(देशवासियों की) है मेरी नहीं। मेरी अपनी तो केवल दर्बलताएँ और असपलताएँ हैं; क्योंकि जन्म से ही जो महान सिक्षाएँ इस देश में व्यक्ति को अपने चतुर्दिक बिखरी और छायी मिलती हैं, उनके लाभ उठाने की मेरी असमर्थता से ही इन दुर्बलताओं और असफलताओं उत्तपति हुई है।
और कैसा है यह देश! जिस किसी के भी पैर इस पावन धरती पर पड़तें हैं वही, चाहे वह विदेशी हो, चाहे इसी धरती का पुत्र, यदि उसकी आत्मा जड़ पशुत्व की कोटि तक पतित न हो गई हो तो, अपने आपको पृथ्वी के उन सर्वोतकृष्ट और पावनतम पुत्रों के जीवन्त विचारों में घिरा हुआ अनुभव करता है, जो शताब्दियों से पशुत्व को देवत्व तक पहुंचाने के लिए श्रम करते रहे हैं और जिनके प्रादुर्भाव की खोज करने में इतिहास असमर्थ है। यहां की वायु भी अध्यात्मिक स्पंदनों से पूर्ण है।….
यह धरती दर्शन शास्त्र, नीति शास्त्र, और आध्यात्मिकता के लिए, उन सबके लिए जो पशुता को बनाए रखने हेतु चलने वाले अविरत संघर्ष से मनुष्य को विश्राम देता है। उस समस्त शिक्षा-दीक्षा के लिए जिससे मनुष्य पशुता का जामा उतार फैंकता है और जन्म-मरणहीन सदानन्द अमर आत्मा के रूप में अविर्भूत होता है,-पवित्र है। यह वह धरती है जिसमें शुख का प्याला परिपूर्ण हो गया था और दुख का प्याला और भी अधिक भर गया था ; अन्तत: यहीं सर्वप्रथम मनुष्य को यह ज्ञान हुआ कि यह तो सब निस्सार है; यहीं सर्वप्रथम यौवन के मध्याह्न में, वैभव विलास की गोद में, ऐश्वर्य के शिखर पर और शक्ति के प्राचुर्य में मनुष्य ने माया की श्रृँखलाओं को तोड़ दिया।यहीं मानवता के इस महासागर में शुख और दुख, शक्ति और दुर्बलता, वैभव और दैन्य, हर्ष और विषाद, स्मित और आंशु तथा जीवन और मृत्यु के प्रवल तरंगाघातों के वीच, चिरंतन शांति और अनुद्विग्नता की घुलनशील लय में त्याग का राजसिंहासन अविर्भूत हुआ।यहीं इसी देश में जीवन और मृत्यु की , जीवन की तृष्णा की, और जीवन के संरक्षण के निमित किए गये मिथ्य और विक्षिप्त संघर्षों की---महान समस्याओं से सर्वप्रथम जूझा गया और उनका समाधान किया गया।---ऐसा समादान जो न भूतो न भविष्यति---क्योंकि यहां पर और केवल यहीं पर इस तथ्य की उपलब्धि हुई कि जीवन भी स्वत: एक अशुभ है , किसी एक सत तत्व की छाया मात्र। यही वह देश है जहाँ और केवल जहाँ पर धर्म व्यावहारिक और यथार्थ था; और केवल यहीं पर नर-नारी लक्ष्य-सिद्धि के लिए---परम् पुर्षार्थ के लिए साहसपूर्वक कर्मक्षेत्र में कूदे, जैसे अन्य देशों में लोग अपने से दुर्वल अपने ही वन्धुओं को लूटकर जीवन के भोगों को प्राप्त करने के लिए विक्षिप्त होकर झपटते हैं।यहाँ और केवल यहीं पर मानव-ह्रदय इतना विस्तीर्ण हुआ कि उसने केवल मनुष्य जाति को ही नहीं वल्कि पशु, पक्षी, और वनस्पति तक को भी अपने में समेट लिया---सर्वोच देवताओं से लेकर वालु के कम तक, महानतम और लघुतम सभी को मनुष्य के विशाल और अनन्त ह्रदय में स्थान मिला। और केवल यहीं पर मानवात्मा ने इस विश्व का अध्ययन एक अविछिन्न एकता केरूप में किया, जिसका हर स्पंदन उसका अपना स्पंदन है।
हम सभी भारत के पतन के सबन्ध में बहुत कुछ सुनते हैं। एक समय था जब मैं भी इसमें विस्वास करता था। पर आज अनुबव की अग्रभूमि पर खड़ा होकर, बाधात्मक पूर्व परिकल्पनाओं से दृष्टि को मुक्त करके और सर्वोपरि, अन्य देशों के अतिरंजित चित्रों को प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा उचित प्रकाश और छायाओं में देखकर मैं, अत्यन्त विनम्रता के साथ मैं स्वीकार करता हूं कि मैं गलत था। आर्यों के ऐ पावन देश तु कभी पतित नहीं हुआ। राजदण्ड टूटते रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कन्दूक एक हाथ से दूसरे हाथ में उछलता रहा है, पर भारत में राजाओं और राजदरवारों का प्रबाव सर्वदा थोड़े से लोगों को छू सका है---उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा कभी मन्द और अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल और प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है। उन वीसों ज्योतिर्मय शताब्दियों की अटूट श्रृँखला के सम्मुख मैं तो विस्मयाकुल खड़ा हूं, जिनके वीच यहाँ-वहां एकाद धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी को और भी अधिक ज्योतिर्मय बना देती है और इनके बीच इनकी गति में अपने सहज महिमामय पदक्षेप के सात प्रगतिशील है मेरी यह जन्मभूमि---अपने यशोपूरित लक्ष्य की सिद्धि के लिए ---जिसे दरती या आकाश की कोइ शक्ति रोक नहीं सकती पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने के लिए।
हाँ मेरे बन्धुओ, यही गौरबमयी भाग्य(हमारे देश का है), क्योंकि उपनिष्द्-युगीन सुदुर अतीत में, हमने इस संसार को एक चुनौता दी थी : न प्रजयाधनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु: ---‘न तो संतति द्वारा और न ही सम्पति द्वारा , वरना केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।’ एक के वाद दूसरी जाति ने इस चुनौति को स्वीकार किया और अपनी सक्ति भर संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं---पुरानी जातियाँ तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुपता से उदभूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पिस-मिट गयीं और नई जातियां गर्त में गिरने से डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी या युद्ध की, सहिष्णुता की विजय होगी या असहिष्णुता की, शुभ की विजय होगी या अशुभ की, शरीर की विजय होगी या बुद्धि की, सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की। हमने तो युगों पहले अपने इस प्रश्न का हल ढूंढ लिया था और सौभाग्य या दुर्भाग्य के मध्य हम अपने उस समाधान पर दृढ़ारूढ़ हैं और कालान्त तक उस पर दृढ़ रहने का संकल्प किए हुए हैं। हमारा समाधान है :असांसारिकता---त्याग।
भारतीय जीवन रचना का यही प्रतिपाद्य विषय है,उसके अनन्त संगीत का यही दायित्व है, उसके अस्तित्व का यही मेरूदण्ड है , उसके जीवन की यही आधार-शिला है, उसके अस्तित्व का एकमात्र हेतु---मानबजाति का आद्यात्मीकरण।अपने इस लम्बे जीवन प्रवाह में भारत कभी भी विचलित नहीं हुआ, चाहे तातारों का शासन रहा हो और चाहे तुर्कों का ,चाहे मुगलों ने राज्य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने।
और मैं चुनौती देता हूँ कि कोई भी व्यक्ति भारत के राष्ट्रीय जीवन को कोई भी ऐसा काल मुझे दिखा दे, जिसमें यहां सारे संसार को हिला देने की क्षमता रखने वाले आध्यात्मिक महापुरूषों का अभाव रहा हो । पर भारत का कार्य आध्यात्मिक है और यह कार्य रण-भेरी के निनाद से या सैन्यदलों के अभियानों से तो पूरा नहीं किया जा सकता। भारत का प्रभाव धरती पर सर्वदा मृदुल ओस-कणों की भांति बरसा है,नीरव और अव्यक्त, पर सदा धरती के सुन्दरतम सुमनों को विकसित करने वाला ।प्रकृत्य मृदुल होने के कारण विदेसों में जानें---प्रभविष्णु होने के लिए इसे परिस्थितियों के एक सुयोगपूर्ण संघटन की प्रतीक्षा करनी होगी ; यद्यपि अपने देश की सीमा के भीतर इसकी सक्रियता कभी बन्द नहीं हुई । इसीलिए प्रत्येक शिक्षित वयक्ति जानता है कि जब कभी सम्राज्य-निर्माता तातार या इरानी या युनानी अथबा अरब लोग इस देश को बाह्य संसार के सम्पर्क में लाए, तभी व्यापक आध्यात्मिक प्रभाव की एक लैहर यहां से समूचे संसार पर फैल गयी। ठीक यही परिस्थितियां एकवार फिर हमारे सम्मुख आकर खड़ी हो गयीं हैं। धरती और सागर पर अंग्रेजों के यातायात, मार्ग और उस छोटे से द्वीप के निवासियों द्वारा प्रदर्शित अदभुत शक्ति ने एकवार फिर शे, संसार के सम्पर्क में ला दिया है, और यही काम फिर से प्रारम्भ हो चुका है। मेरे शब्दों पर ध्यान दो---यह तो केवल अल्प प्रारम्भ मात्र है ;महान सिद्धियां बाद में उपलब्ध होंगी;यह तो मैं निस्चित रूप से नहीं कह सकता कि भारत के बाहर हमारे बर्तमान कार्य का परिणाम क्या होगा, पर इतना तो मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि प्रत्येक सभ्य देश में लाखों---मैं जानबूझकर कहता हूँ ---लाखों व्यक्ति उस संदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उन्हें भौतिकता के उस घृणित गर्त में गिरने से बचा लेगा, जिसकी आधुनिक अर्थोपासना उन्हें आंक मूंदकर ढकेल रही है ; और नवीन सामाजिक अन्दोलनों के अनेक अग्रणी पहले ही से समझ चुके हैं कि केवल वेदान्त ही अपने सर्वोच्च रूप में उनकी सामाजिक आकांक्षाओं को आध्यात्मिकता प्रदान कर सकता है।
1 टिप्पणी:
Very informative and inspiring article. Thanks.
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