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मोदीराज लाओ

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भारत बचाओ

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

बीरभद्र सिंह क्यों प्रेमकुमार धूमल पर भारी पड़े?

मित्रो आज जब देश में हिन्दूविरोधी-भारतविरोधी कांग्रेस के बिरूध एक तूफान सा चल निकला है उस महौल में बीरभद्र सिंह द्वारा प्रेमकुमार धूमल को हराना किसी अजूबे से कम नहीं है…

मित्रो हम सब जानते हैं कि जबसे बीरभद्र सिंह जी ने अपने पिछले कार्यकाल में धर्मस्वतन्त्रता बिधेयक बनबाकर अपने हिन्दूत्वनिष्ठ होने मतलब प्रखर देशभक्त होने का प्रमाण दिया है तब से ईसाई कट्टरता की बीमार मानसिकता से ग्रसित एडबीज एंटोनिया अलवीना माइनो और उसका बेटा राहुल विन्शी देशभक्त बीरभद्र सिंह जी के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं ।

अपनी इसी हिन्दूविरोधी-भारतविरोधी मानसिकता के कारण एंटोनिया ने चुनाब आयोग पर अपनी पकड़ का गलत इसतेमाल करते हुए 2007 में निर्धारित समय से 6 महीने पहले चुनाब करबाकर बीरभद्र सिंह जी की हार सुनिश्चित करवाकर ईसाई सटोक्स को नेताविपक्ष बनाकर हिमाचल में कांग्रेस का नेतृत्व ईसाई के हाथ में सौंपने का असफल प्रयत्न किया। लेकिन बीरभद्र सिंह जी की अपनी लोकप्रियता व संगठन पर मजबूत पकड़ होने के कारण इस कटर ईसाई का ये षडयन्त्र सफल न हो सका ।

इन कटरताबादी मां–बेटे की  हिन्दूविरोधी मानसिकता एकबारफिर तब वेनकाब हुई जब इन दोनों ने मिलकर बीरभद्र सिह जी के बेटे vikrmadityaको युवा काँग्रेस के मुखिया के पद से हटाते हुए उसके दोबारा चुनाब लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया  वो भी तब जब इन दोनों कट्टर ईसाईयों व इनके गुलामों के भरपूर बिरोध के बाबजूद  ये नौजबान दो-तिहाई बहुमत से जीतकर युबाकांग्रेस के मुखिया के पद पर पहुंचा था।

इन कटरताबादी मां-बेटे के हिन्दू विरोधी षडयन्त्र यहीं  नहीं रूके बल्कि इन दोनों ने 2012 के चुनाबों में भी कमान बीरभद्र सिंह जी के हाथ में न देने की भरपूर कोशिश की लेकिन जब बीरभद्र सिंह जी ने अपनी राह इनकी गुलाम काँग्रेस से अलग करने की धमकी दी तब जाकर इन दोनों ने मजबूरी में चुनाबों की कमान उस वक्त बीरभद्र सिंह जी के पास दी जब चुनाबों में कुल मिलकार एक महीने से भी कम समय रह गया था।

हम सब जानते हैं कि बिपक्ष को जितना कम समय चुनाबों से पहले मिलता है उतना ही अधिक फायदा सतापक्ष को होता है लेकिन फिर भी प्रेमकुमार धूमल चुनाब हार गए क्यों?

आज जब बीरभदर सिंह जी ने इन कटरताबादी ईसाई मां-बेटे के सब षडयन्त्रों को धूल चटाते हुए हिमाचल में निर्णायक बिजय हासिल की है तब भी ये सुनिश्चित नहीं लगता कि ये दोंनों इन्हें हिमचाल में मख्यमन्त्री पद की सपथ लेने देंगे।

आज की तारीख में इस दोनों हिन्दूविरोधियों की एक ही कोशिश है कि किसी तरह कौल सिंह को मोहरा बनाकर हिमाचल की बागडोर आन्नद शर्मा को दे दी जाए.. क्यों?

जातिबादी मानसिकता के सिकार लोग सोचेंगे कि ये दोनों एक पण्डित को मुख्यमन्त्री बनाना चाह रहे हैं तो इसमें हरज ही क्या है लेकिन सच्चाई ये है कि आन्नद शर्मा की पत्नी भी इटली से है और ईसाई है इसीलिए कोशिश हिन्दू से सता छीनकर किसी ऐसे इनसान के हाथ में देने की कोशिश है जो पूर्ण रूप से हिन्दू नहीं है …

अब आप सोचो कि जिस बीरभद्र सिंह के पीछे पूरी कांग्रेस सरकार पड़ी हो उसे हराने के लिए उसी बीरभद्र सिंह से धूमल के हारने के क्या माइने हैं?

असली बात तो ये है कि प्रेम कुमार धूमल जी जिस पार्टी में हैं उस पार्टी की बिचारधारा से उनका दूर का भी बास्ता नहीं है। कुलमिलाकर आज धूमल साहब का एक ही मकसद नजर आता है कि किसी तरह कांग्रेसी गुलाब सिंह ठाकुर की सहायाता से भाजपा को पूरी तरह नेसतनानबूद करके उसकी जगह साहब और साहब के गुलामों की सरकार बना दी जाए जिसे हिन्दूत्वनिष्ठ बोटर ने पूरी तरह से नकार दिया है।

बहुत से लोग कहेंगे कि प्रमे कुमार धूमल ने 10 वर्ष तक भाजपा सरकार का नेतृत्व किया है लेकिन बास्तबिकता ये है कि इन 10 वर्षों में धूमल जी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक भी ऐसा काम नहीं किया जिसे हिन्दुत्व के पैमाने पर कसा जा सके।

उधारण के लिए ऐसे बहुत से मौके आए जब धूमल साहब अपने हिन्दूत्वनिष्ठ होने का प्रमाण प्रस्तुत कर सकते थे लेकिन इन्होंने नहीं किया।

हिन्दूविरोधी-भारतविरोधी केन्द्र सरकार ने एक ऐसी छात्रवृति की शुरूआत की जो सिर्फ गैर हिन्दूओं के लिए ही थी जिसको गुजरात के नरेन्द्र मोदी जी ने रोक दिया व धूमल जी ने अक्षरशह लागू कर दिया।बास्तब में ऐसी बिभाजनकारी योजनायें छात्रों के बीच बैमनस्य पैदा करती हैं ।

केन्द्र सरकार ने अपनी तुष्टीकरण की निती को आगे बढ़ाने के लिए साऊदी अरब व अफगानीमूल के मौलाना आजाद का जन्मदिन मनाने का निर्णय लिया जिसे हिमाचल में लगू कर दिया गया जबकि हिन्दूत्व की बिचारधारा पूरी तरह से भूमिपुत्रों को अधिमान देने की है।

जब प्रेमकुमार धूमल जी बिपक्ष में थे तो इन्होंने कुछ लेख ऐसे जरूर लिखे थे जिन्हें पढ़ ऐसा भ्रम पैदा होता था मानों ये हिन्दुत्वनिष्ठ हैं लेकिन जैसे ही इन्होंने मुख्यमन्त्री पद की शपथ ली बैसे ही इन पर एकबार फिर सेकुलर होने का भूत स्वार हो गया और इन्होंने अपनी सब योजनाओं की घोषणा ईसायों के नव वर्ष पर की जबकि ठीक 12 दिन बाद मक्रशक्रांति का सुभअबसर सामने था।

आप सब जानते हैं कि फूट डालो और राज करो की हिन्दूविरोधी-भारतविरोधी राजनिती पर चलने वाली कांग्रेस ने हिन्दुत्वनिष्ठ भाजपा को निशासना बनाने के लिए सदभावना दिबस मनाना शुरू किया जिसको मानने के आदेश धूमल सरकार ने दिए।

जिस काँग्रेस की बिभाजनकारी नितीयों का विरोध करने के लिए भाजपा की उत्पति हुई उसी कांग्रेस के नेताओं के बुतों पर धूमल जी को माथा टेकटे हुए पाया गया।

अब आप ही बताओ कि दो नाबों पर सवार धूमल साहब पर हिन्दूत्वनिष्ठ बोटर बिश्वास करे तो कैसे ?

कुलमिलाकर धूमल सरकार का हारना धर्मनिर्पेक्षता की हार है और धर्मनिर्पेक्षता को हराना देस को बचाने के लिए जरूरी है।

दूसरी तरफ आप देखो कि हिन्दूविरोधी-भारतविरोधी कांग्रेस में रहते हुए भी बीरभद्र सिंह जी ने एक ऐसा कानून बनबाया जिससे ईसाईयों द्वारा धन-बल व छल-कपट द्वरा किए जा रहे धर्मांतरण पर रोक लगी वो भी अमेरिका-ब्रिटेन व सेनिया के दबाबा के आगे न झुकते हुए जिसके परिणाम स्वारूप संघ द्वारा बीरभद्र सिंह जी को लौहपुरूष कहा गया।

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