आज से लगभग सौ वर्ष पहले लायपुर जिले के गांव वंगा में एक हिन्दू-सिख कुटुम्ब रहता था।यह कुटुम्ब अपनी देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध था। गांव के लोग इस कुटुम्ब का बड़ा आदर करते थे।
कुटुम्ब में तीन भाई थे--- सरदार किशन सिंह जी,सरदार स्वर्ण सिंह जी और सरदार अजीत सिंह जी। भारतविरोधी–हिन्दू विरोधी अंग्रेज सरकार ने तीनों भाईय़ों को देशभक्ति के अपराध में जेल भेज दिया था। इनमें से अजीत सिंह जी को काले पानी की सजा दी गई थी।
घर में किशन सिंह जी की मां जी और पत्नी को छोड़कर और कोई नहीं था।
1907 ई. के सितम्बर माह में किशन जी की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया । बालक देखने में शुन्दर था हष्टपुष्ट था ।
बालक के जन्म लेने से घर में हर्ष और उत्साह की लहर दौड़ पड़ी। गाना-बजाना होने लगा। गांव के लोग किशन सिंह जी की मां जी को बधाईयां देने आने लगे।
जिस समय किशन जी के घर में गाने बजाने का क्रम चल रहा था उसी समय वे जेल से छूटकर आ गये। उनके आने से हर्ष और उत्साह में पंख लग गये। किशन जी की मां की खुशी का तो कहना ही क्या था। मां तो खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। मां जी के मुख से निकल पड़ा “ये लडका तो बड़े भागों वाला है । इसके पैदा होते ही इसके पिता जेल से छूट कर आ गये।”
किशन सिंह जी की मां ने इस बालक का नाम भगत सिंह रखा। यही बालक भगत सिंह वे अमर शहीद भगत सिंह जी हैं, जिन्होंने अपनी देशभक्ति से मातृभूमि का मस्तक ऊँचा करने के लिए सर्वोत्तम वलिदान दिया था।
भगत सिंह का लालन-पालन बड़े प्यार से हुआ। घर में सब लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे। ये चंचल बालक हमेशा हंसता रहता था।
भगत सिंह ज्यों-ज्यों उमर की सीढ़ियां चढ़ने लगे ,त्यों-त्यों उनकी सुन्दरता निखरने लगी, उनकी चंचलता में पंख लगने लगे। जब वे कुछ और बड़े हुए, तो संगी साथियों के साथ खेलने लगे।
बालक भगत सिंह साथियों को दो दलों में बाँट दिया करते थे और बीरता के खेल खेला करते थे।
भगत सिंह का कुटुम्ब बड़ा धार्मिक था। घर में भजन और कीर्तन प्राय प्रतिदिन हुआ करते था। बालक भगत सिंह बड़े प्रेम से भजन और कीर्तन सुना करते थे। उन्होंने सुन करके ही बहुत से गीत याद कर लिए थे। वे अपने पिता जी को बड़े प्रेम से गायत्री मन्त्र सुनाया करते थे।
एक दिन भगत सिंह के पिता जी अपने मित्र के घर गये। आनन्द किशोर जी बड़े देशभक्त थे। उन्होंने बालक भगत सिंह से पूछा “तुम कौन सा काम करते हो?”
बालक भगत सिंह ने उतर दिया “मैं बंदूकें बनाता हूं।”
आनन्द किशोर जी ने पुन: दूसरा प्रश्न किया “तुम बन्दूकें क्यों बनाते हो?”
बालक ने सहज भाव से उतर दिया “मैं बन्दूकों से भारत मां को स्वतन्त्र करूँगा”
आनन्द किशोर बालक भगत सिंह के उतर से बड़े प्रसन्न हुए।उन्होंने उनके पिता से कहा “तुम बड़े भाग्यशाली हो। तुम्हारा यह पुत्र अपने साहस और अपनी बीरता से तुम्हारे पूर्बजों का नाम उज्जल करेगा।”
आनन्द किशोर जी की कही हुई बात सत्य सिद्ध हुई। भगत सिंह ने बड़े होकर अपने साहस और वीरता से सिर्फ अपने पूर्बजों का ही नहीं वल्कि सारे देश का मुख उज्जवल किया।
दूसरी वार बालक भगत सिंह अपने पिता के साथ खेत पर गये। खेत में हल चल रहा था।
बालक भगत सिंह ने अपने पिता से पूछा, “पिता जी ,यह क्या हो रहा है?”
पिता ने उतर दिया,“खेत में हल चला रहा है। खेत की जुताई हो रही है। जुताई के बाद खेत में गेहूं के बीज बोये जायेंगे।”
बालक भगत सिंह ने सहज भाव से कहा, “पिता जी आप पिस्तौलों और बन्दूकों की खेती क्यों नहीं करते, आप गेहूं के बीज न वोकर, बन्दूकों के बीज क्यों नहीं बोते?”
पिता जी आश्चर्यचकित होकर बालक भगत सिंह के मुख की ओर देखने लगे। उन्हें क्या मालूम था कि उनका यह बालक बड़ा होने पर सचमुच बन्दूंकों की खेती करेगा। सचमुच बन्दूकों और पिस्तौलों के बल पर आक्रमणकारी अंग्रेज लुटेरों के अन्दर दहशत पैदा कर भारत माता की आजादी का नायक बनेगा।
जब भगत सिंह जी पाँच वर्ष के हुए, तो पढ़ने के लिए गाँव की प्राईमरी पाठशाला में विठाये गये। वे पढ़ने लिखने में बढ़े तेज थे। खेलों में भी उनकी बड़ी रूची थी। प्राईमरी की शिक्षा के बाद उनके पिता जी ने उनका नाम लाहौर के खालसा स्कूल में लिखवा दिया।फलत: वे पढ़ने के लिए लाहौर चले गये।
भगत सिंह अधिक दिनों तक खालसा स्कूल में नहीं पढ़ सके। इसका कारण यह था कि स्कूल का बाताबरण विलकुल विदेशी था। लड़के अंग्रेजी बोलते थे और विदेशी ही पोशाक पहनते थे। खान-पान, रहन-सहन---सबकुछ अंग्रेजी ढ़ंग का था।
किशन सिंह जी को ये सब अच्छा नहीं लगता था क्योंकि वे देशभक्त थे, भारतीयता उनकी रग-रग में समाई हुई थी। वे नहीं चाहते कि विदेशी बाताबरण में उनका बच्चा भारतीय संस्कृति से दूर चला जाए।
अत: किशन जी ने भगत सिंह का नाम खालसा स्कूल से कटवाकर डी.ए.वी. स्कूल में लिखवा दिया। भगत सिंह ने डी. ए. वी. से ही दशवीं की कक्षा पास की। 1920ई. में गाँधी जी का असहयोग अन्दोलन चला। अहसहयोग अन्दोलन में अंग्रेजों के नियन्त्रण वाली सरकारी संसथाओं का वहिष्कार किया गया और जगह-जगह राष्ट्रीय स्कूल व कालेज खोले गए।
लाहौर में भी भाई परमानन्द जी के प्रयत्नों से नेशनल कालेज की स्थापना की गई। भाई जी ही उस कालेज की देखरेख करते थे।
नेसनल काले की स्थापना होने पर भगत सिंह ने डी.ए.वी. कालेज छोड़ दिया व नेशनल कालेज में एफ.ए. में नाम लिखवाकर पढ़ने लगे।
नेशनल कालेज में ही भगत सिंह जी का शुखदेव जी
और
भगवती चरण जी से परिचय हुआ। यह परिचय धीरे-धीरे घनिष्ठ मित्रता में बदल गया।वह मित्रता जीवनभर वनी रही।
एकवार कालेज में चन्द्रगुप्त नाटक खेला गया।उस नाटक में भगत सिंह ने शशिगुप्त अर्थात चन्द्रगुप्त का अभिनय किया था। उन्होंने उनके सैनिक जीवन से लेकर सम्राट होने तक का अभिनय इतनी खूबी के साथ किया कि दर्शक मुग्ध होकर रह गये। स्वयं भाई परमानन्द जी ने उनके अभिनय की प्रशंसा करते हुए कहा था “तुम एक दिन अवश्य अपना नाम ज्जवल करोगे।”
कालेज की पढ़ाई के दिनों में ही भगत सिंह के जीवन में एक ऐसी घटना घटी, जिसके कारण उनके जीवन के रंगमंच का पर्दा बदल गया।
भगत सिंह तो भाई थे । उनके दूसरे भाई का नाम जगत सिंह था। अल्पावस्था में ही जगत सिंह की मृत्यु हो गई। कुछ दिनों में घर के लोगमृत्यु के शोक को भूल गए और घर में नई बहार लाने के लिए भगत सिंह का विवाह करने की बात सोचने लगे।
किशन सिंह जी ने भगत सिंह का विवाह करने का निश्चय कर लिया।उन्होंने विवाह के लिए एक लड़की को भी देख लिया।
भगत सिंह उन दिनों बी. ए. पास कर चुके थे। उन्होंने बी. ए. पास करने से पहले ही देश की सेवा करने का ब्रत ले लिया था। उन्होंने निश्चय किया था कि वे अपने चाचा अजित सिंह की तरह आजीबन देश की सेवा करेंगे, भारत की स्वातन्त्रता के लिए संघर्ष करेंगे।
भगत सिंह को जब अपने विबाह की बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने पिता जी को पत्र लिखा, “पिता जी, मैंनें चाचा अजित सिंह जी की तरह देश सेवा का ब्रत लिया है। यह प्रेरणा मुझे आप से ही मिली है। अत: कृपा करके आप मुझे विवाह के बन्धन में न बाँधें । मैं विबाह नहीं करना चाहता।”
भगत सिंह के पत्र ने उनके घर में खलबली पैदा कर दी। उनकी माँ और उनकी दादी बहुत दुखी हुईं। वे किसी तरह भगत सिंह को विबाह करने के लिए राजी करना चाहतीं थीं। क्योंकि भगत सिंह ही अब उस घर के जीवनावलम्ब थे। अत: वे उन्हें छोड़ना नहीं चाहती थीं, उन्हें शीघ्र से शीघ्र गृहस्थ जीवन में लाना चाहती थीं।
फलत: किशन जी ने भगत सिंह को पत्र लिखा ,“मैंनें तुम्हारा विवाह करने का निश्चय कर लिया है। विवाह के लिए लड़की भी पसन्द कर ली है। तुम्हें अपना निश्चय बदलकर मेरी बात माननी चाहिए। तुम्हारी माँ और तुम्हारी दादी की भी यही इच्छा है कि तुम विबाह करके गृहस्थ जीवन व्यतीत करो ।”
पिता का पत्र पाकर भगत सिंह संकट में पड़ गये-वे सोचने लगे, अब करें तो क्या करें? पिता जी की बात मानकर विबाह करें या भारत माँ की सेवा करने के अपने व्रत को पूरा करने के लिए मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करें?
कई दिनों तक सोचने और विचार करने के बाद भगत सिंह जी ने निश्चय किया कि वे विबाह नहीं करेंगे, भारतमाता की सेवा में ही अपना जीवन व्यतीत करेंगे।
भगत सिंह जी ने पिता जी को उतर दिया , “पिता जी मातामही मुझे पुकार रही है। मैंनें उसकी पुकार पर अपने जीवन की डोर उसके हाथ दे दी है। अत: मैं आपकी बात न मानने पर विवश हूँ। वाद-विवाद अधिक न बढ़े और मैं कठिनाई में न पड़ूं, इसलिए अब मैं लाहौर छोड़ रहा हूँ। कहाँ जाऊँगा-कुछ कह नहीं सकता।”
पिता जी को पत्र लिखने के बाद भगत सिंह जी ने लाहौर छोड़ दिया। वे दिल्ली चले गये। वे दिल्ली में दैनिक ‘अर्जुन’ में संवाददाता का काम करने लगे।
कुछ ही दिनों में भगत सिंह जी का मन दिल्ली से उचट गया। वे दिल्ली से कानपुर चले गये। वे कानपुर में सप्ताहिक ‘प्रताप, में काम करने लगे। उन्होंने अपना नाम बदलकर, बलबन्त रख लिया। वे इसी नाम से प्रताप में लेख लिखा करते थे। प्रताप के संपादक और सुप्रसिद्ध देशभक्त गणेश शंकर जी भगत सिंह जी को बड़ा स्नेह देते थे। वे उनकी सहायता तो करते ही थे, उन्हें प्रोतसाहन भी दिया करते थे।
‘प्रताप, में काम करते हुए भगत सिंह जी का कई क्रान्तिकारियों से परिचय हुआ। उनमें योगेश चन्द्र चटर्जी, वटुकेशवर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद मुख्य थे। धीरे-धीरे यह परिचय मित्रता के रूप में बदल गया। भगत सिंह जी उनके साथ मिलकर गुप्त रूप से क्रांतिकारी काम करने लगे।
इन्हीं दिनों गंगा में बाढ़ आई ।गंगा के किनारे के सैंकड़ों गांव डूब गये। जान-माल का बहुत अधिक नुकसान हुआ।
भगत सिंह ने अपने मित्रों के साथ बाढ़ पीढ़ितों की बड़ी सेवा और सहायता की उनकी सेवा पर कानपुर की जनता मुग्ध हो उठी और मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा करने लगी।
कुछ दुनों बाद गणेश शंकर विद्यार्थी ने एक राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने सरदार भगत सिंह को उस विद्यालय का मुख्य अध्यापक नियुक्त किया। वे अब अध्यपान कार्य करने लगे।
इन्हीं दिनों किसी तरह किशन सिंह जी को सरदार भगत सिंह जी का पता मालूम हो गया। उन्होंने उन्हें तार देकर सूचित किया “तुम्हारी माँ मरणासन है तार पाते ही शीघ्र घर चले आओ।”
तार पाने पर भगत सिंह अपने आप को रोक नहीं सके। वे नौकरी छोड़कर घर चले गये। उन्होंने अपनी मां की तन-मन से सेवा की। माँ तो अच्छी हो गई, पर भगत सिंह पुन: लौटकर कनपुर नहीं जा सके। उनकी दादी और उनकी मां ने उन्हें रोक लिया।
भगत सिंह अपनी दादी और माँ की बात मानकर घर पर रूक तो गये पर उनका मन नहीं लगता था। वे बराबर सोच-विचार में पड़े रहते थे। वे सोचते थे कि कहीं घर के लोग विवाह के लिए उन से दोवारा हठ न करें। अगर ऐसा किया तो क्या वे उनकी बात मान लेंगे? नहीं कदापि नहीं। वे विवाह वन्धन में नहीं बँधेंगे। उन्होंने भारत माँ की सेवा का जो व्रत धारण किया है,वे उसे अवश्य पूरा करेंगे।
भगत सिंह को कानपुर के अपने मित्रों की भी याद आया करती थी। वे सोचा करते थे,वे लोग तो गुलामी की जेंजीरों को तोड़ने के लिए क्रान्ति की आग जलाने में लगे होंगे और मैं यहां माँ व दादी के मोह में पड़कर घर में रह रहा हूँ।
भगत सिंह जी राजनीति और इतिहास के विद्यार्थी थे । उन्होंने 1857 की स्वतन्त्रता के युद्ध के वीरों की कहानियां पढ़ी थीं। वे रास बिहारी बोस, भाई बालमुकुन्द, अबध बिहारी और वीर सावरकर जी की जीबन कथाओं से भी परिचित थे। वे इन घटनाओं को भी जानते थे कि रास विहारी वोस ने सारे भारत में एक साथ ही क्रान्ति की आग जलाने की योजना बनाई थी। उन्होंने फौजियों के ह्रदय में क्रान्ति के बीज वोय थे।
भगत सिंह जी को इन सभी घटनाओं से प्रेरणा मिलती थी। इस प्रेरणा के फलस्वारूप उनके मन का यह संकल्प दृढ़ होता जा रहा था कि वे गुलामी की जंजीरों को तोड़ने में ही अपना सारा जीवन लगायेंगे व विवाह कदापि नहीं करेंगे।
भगत सिंह की मां और दादी का कहना था कि वे पंजाब से बाहर ना जायें । उन्होंने उनकी यह बात मान ली ।उन्होंने ने निश्चय किया कि कोई बात नहीं हम पंजाब में रहकर ही क्रान्ति की आग जलायेंगे।
उन दिनों अकालियों का गूरूबाग सत्याग्रह चल रहा था। रोज ही स्वंसेवकों का जत्था जुलूस बनाकर निकलता और अपने को गिफ्तार कराता था। उस सत्यग्रह को लेकर सारे पंजाब में उतेजना फैली हुई थी। भारतविरोधी सरकार का दमन चक्र भी जोरों से चल रहा था। एक दिन सत्याग्रहियों का जत्था भगत सिंह जी के गाँव से होकर जाने वाला था। उन्होंने उस जत्थे के स्वागत के लिए बड़ी धूम-धाम से से तैयारी की थी। उन्होंने गांव के अन्य युवकों के मन में भी उत्साह के बीज बोये थे।
सत्याग्रहियों का जत्था गाँव में पहुँचा, तो उन्हें फूल मालायें पहनाई गईं, उन्हें खाना खिलाया गया,उन्हें वस्त्र प्रदान किये गये और नकद रूपए भी दिए गये। गांव के कुछ युवक सत्याग्रहियों के साथ हो लिए,पर स्वंय भगत सिंह सत्याग्रहियों के साथ नहीं गये, क्योंकि उनके सामने केवल अकालियों का प्रश्न नहीं था। उनके सामने प्रश्न था सारे हिन्दूस्थान की आजादी का। वे हिन्दू-सिख अवश्य थे फर वे सब भारतवासियों को अपना मानते थे। वे गुरूद्वारे के साथ ही मन्दिर का भी आदर करते थे।
यद्यपि भगत सिंह अकाली अन्दोलन के सत्याग्रह में कभी सामिल नहीं हुए थे, पर उन्होंने उस दमन की जोरों के साथ निन्दा की जो अंग्रेजी भारतविरोधी सरकार की ओर से हो रहा था।
भगत सिंह जी का मन आकुल रहता था। वे शीध्रताशीघ्र क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होना चाहते थे, भारत माँ की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के प्रयत्न में लगना चाहते थे।
उन दिनों बंगाल,उतर प्रदेश और पंजाब में नये सिरे से क्रांतिकारियों के दल का संगठन गुप्त रूप से हो रहा था। लाहौर में भी कुछ क्रान्तिकारी पहुँचे थे और दल को सुदृढ़ बनाने में लगे हुए थे।
संयोग की ही बात थी कि भगत सिंह जी का परिचय क्रान्तिकारी दल के एक सदस्य से हो गया,दल में सम्लिलित होने का उन्हें सुयोग प्राप्त हो गया।
दोपहर का समय था। भगत सिंह दल के अध्यक्ष की सेवा में उपस्थित हुए।
दल के अध्यक्ष ने भगत सिंह से प्रश्न किया, “तुम कौन हो? यहां क्यों आए हो?” भगत सिंह ने तर दिया “मेरा नाम भगत सिंह है मैं भारत माँ की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित होना चाहता हूँ।”
अध्यक्ष ने भगत सिंह की ओर देखते हुए कहा , “क्या तुम इस बात से परिचित हो कि क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होने का अर्थ है, मृत्यु से खेलना, भयानक से भयानक कष्टों को सहन करना ?”
भगत सिंह ने निर्भीकता से उतर दिया,“मैं जानता हूँ-अच्छी तरह जानता हूँ। मैं गुलामी की जेजीरों को तोड़ने के लिए तैयार हूँ, भयानक से भयानक कष्टों को सहन करने के लिए उद्यत हूँ। ”
अध्यक्ष ने पुन: कहा, “क्या तुम अपने माता पिता से पूछ कर आए हो?”
भगत सिंह ने उतर दिया, “मैं इसकी आवश्यकता नहीं समझता। मैं माता-पिता, कुटुम्बियों और घर द्वार से भारत माता को सर्वोपरि मानता हूँ। वह सबकी माँ है हम सबकी माँ है। मैं उसे स्वतन्त्र करवाने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा।”
अध्यक्ष से सोचते हुए कहा, “दल में सम्मिलित होने से पूर्व तुम्हें परीक्षा देनी होगी।”
भगत सिंह वोल उठे, “किस बात की परीक्षा ?”
अध्यक्ष ने कहा,“अपनी वीरता की,अपने कष्ट सहन की।”
भगत सिंह ने उतर दिया, “मैं तैयार हूँ। जरा अपना पैर आगे बढ़ाईए।”
अध्यक्ष ने अपना पैर आगे बढ़ा दिया। भगत सिंह ने उनके पैर पर अपना पैर रखकर भाले से चोट की, भाले की नोक भगत सिंह के पैर को पार करती हुई अध्यक्ष के पैर में घुस गई।
अध्यक्ष दर्द से कराह उठे। भगत सिंह ने भाले को फैंकते हुए कहा, “आप तो दर्द से कराह उठे,पर मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम हो रहा है,जबकि चोट मुझे अधिक लगी है।”
अध्यक्ष भगत सिंह की वीरता और दृढ़ता पर मुग्ध हो उठे। उन्होंने भगत सिंह को दल में सम्मिलित करते हुए कहा, “मैं तुम्हें सरदार की उपाधी दे रहा हूँ।”
वस उसी दिन से भगत सिंह के नाम के आगे सरदार जुड़ गया और वे सरदार सिंह कहे जाने लगे।
भगत सिंह के पैर में भाले की चोट का निशान आजीवन वना रहा। वे अपने मित्रों को उस निशान को दिखाकर उस घटना की बार-बार चर्चा किया करते थे।
भगत सिंह क्रंतिकारी दल में सम्मिलित होकर क्रन्ति के लिए काम करने लगे। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक कोई संस्था स्थापित न की जायगी,काम सुचारू रूप से नहीं हो सकेगा।
फलत: भगत सिंह ने अपने मित्रों के सहयोग से युबकों की एक संस्था स्थापित की जिसका नाम नौजवान भारत सभा रखा गया। उसकी मासिक सदस्यता की फीस केवल चार आने थी। प्रवेश फीस एक रूपया थी।
1924 ई. के सर्दियों के दिन थे। लायलपुर नगर के बाहर मैदान में बहुत से खेमे गड़े हुए थे। एक सुसज्जित पंडाल के भीतर बहुत से युवक बैठे थे। पंडाल के उपर केशरी झंडा फहरा रहा था। पंडाल में एक ओर मंच बना हुआ था,जिस पर कुछ लोग बैठे थे। उनमें सरदार भगत सिंह जी भी थे।
यह आयोजन नौजवान भारत सभा की ओर से था। सभा का एक अधिवेशन हो रहा था। अधिवेशन में पंजाब के बहुत से युवक सम्मिलित हुए थे।
सरदार भगत सिंह जी मंच पर बोलने के लिए खड़े हुए थे। उन्होंने अपने भाषण में महाराणा प्रताप जी, छत्रपति शिवा जी और गुरू गोविन्द सिंह जी की याद दिलाई। उन्होंने भारत की गरीबी का वर्णन करते हुए अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किए जा रहे अत्याचारों का वर्णन किया। उन्होंने भारत माँ की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए जुवकों का आह्वान किया। उन्होंने कहा “युवक आगे बढ़ें और इस आक्रमणकारी, अत्याचारी अंग्रेजी शासन का अन्त करके भारत को स्वतंत्र करें। ”
भगत सिंह के भाषण का युवकों पर बड़ा प्रभाव पड़ा उन्होंने ‘हम तैयार हैं’ ‘हम तैयार हैं’ के नारे लगाकर भगत सिंह जी का स्वागत किया।
भगत सिंह जी ने पुन: कहा, “जो जुवक नौजवान भारत सभा में सामिल होना चाहते हैं, उन्हें प्रतिज्ञा पत्र पर रक्त से हस्ताक्षर करने होंगे।”
सर्वप्रथम भगत सिंह ,सुखदेव और भगवतीचरण ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए। उसके बाद सैंकड़ों युवक वारी-वारी से आगे बढ़े और उन्होंने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए।
हजारों लोग नौजवान भारत सभा के सदस्य हो गए। देखते ही देखते हजारों रूपए इकट्ठे हो गए। पंडाल ‘भारत माँ की जय’ के नारों से गूँज उठा।
अधिवेशन के बाद युवक गाँव-गाँव फैल गए, लोगों को नौजवान भारत सभा का सदस्य बनाने लगे। अंग्रेजी शासन का अन्त करने के लिए उनमें उत्साह और जोश पैदा करने लगे।
भारतविरोधी सरकार के कान खड़े हो गये। उसने सोचा कहीं ऐसा न हो कि, सारे पंजाब में विप्लव की हवा फैल जाए और उसके लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बन जाए।
भारतविरोधी सरकार ने यह भी अनुभव किया कि इस काम के पीछे भगत सिंह जी का हाथ है। अत: भगत सिंह जी भारतविरोधी सरकार की आँखों में खटकने लगे। भारतविरोधी सरकार की ओर से उन्हें बन्दी बनाने का षड्यन्त्र किया जाने लगा।
भगत सिंह जी के पीछे जासूस लग गये।वे जहाँ भी जाते थे जासूस उनका पीछा किया करते थे।
गिरफ्तारी की खबर जब जोरों से उड़ी, तो मित्रों और हितैषियों ने सलाह दी कि वे कुछ दिनों के लिए पंजाब से वाहर चले जाएँ।
अत : भगत सिंह जी कानपुर चले गये, लेकिन वे कानपुर में भी ज्यादा दिन नहीं रह सके क्योंकि कानपुर में भी जासूस उनके पीछे लगे रहते थे। उन्हें डर था कि कहीं उनके कारण उनके मित्र संकट में न पड़ जायेँ।
उन दिनों बेलगाँव में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। अत : भगत सिंह कानपुर से वेलगाँव चले गये।
अधिवेशन समाप्त होने पर भगत सिंह इधर-उधर घूमते रहे। फिर लाहौर चले गये। लाहौर में अकाली पत्र का सम्पादन करने लगे।
भगत सिंह ने अकाली पत्र में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध कई लेख लिखे। उन्होंने फाँसी पर चढ़े हुए क्रान्तिकारियों की प्रशंसा की।
उन लेखों के कारण भगत सिंह जी को गिफ्तार कर लिया गया। उन पर अभियोग साबित न होने पर उन्हें छ : हजार रूपए की जमानत पर छोड़ दिया गया।
भगत सिंह जी छूटने के बाद फिर क्रन्तिकारी कामों में लग गये।
1925 ई. के दशहरा का दिन था। लाहौर में बड़ी धूम-धाम से राम-लीला का जुलूस निकल रहा था। मर्यदापुर्षोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी की सवारी भगवान राम जी की जय के नारों के साथ मुख्य सड़कों से होती हुई आगे बढ़ रही थी।लाखों भक्तों की भीड़ थी।
जुलूस जब अनारकली में पहुँचा, तो बड़े जोर का धमाका हुआ। किसी ने जुलूस पर बम फैंक दिया था।
जुलूस में किसी की मृत्यु तो नहीं हुई लेकिन कुछ लोग घायल अवश्य हो गए थे।
भारतविरोधी सरकार की आँखों में पहले से खटक रहे भगत सिंह जी को फंसाने का मानो भारतविरोधी अंग्रेज सरकार को बहाना मिल गया हो। अत: उसने बम फैंकने का अपराध भगत सिंह जी पर लगाकर उन्हें उनके मित्रों के साथ गिरफ्तार कर लिया।
अदालत में भगत सिंह और उनके मित्रों पर मुकद्दमा चलाया गया, पर प्रमाण नहीं मिल सके।
अत: भारतविरोधी सरकार को मजबूर होकर भगत सिंह जी को छ: हजार की जमानत पर छोड़ना पड़ा।
छूटने पर भगत सिंह जी फिर क्रान्ति की आग जलाने लगे, फिर विप्लव-सबन्धी काम करने लगे।
1925 ई. की 8वीं अगस्त को सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी में ट्रेन लूटी गई थी। उनके साथ चन्द्रशेखर आजाद जी, अश्फाक उल्ला जी और राजेन्द्र लाहिड़ी आदि क्रांतिकारी भी थे।
भेद खुलने पर सभी लोग एक एक कर गिफ्तार कर लिए गए और अलग-अलग जेलों में बन्द कर दिए गए। केवल चन्द्रशेखर आजाद गिरफ्तार नहीं किए जा सके थे। वे फरार होकर छिप गए थे।
बन्दी क्रान्तिकारियों पर लगभग दो वर्ष तक मुकद्दमा चलाया गया। उन्हें बचाने का भरसक प्रयत्न किया गया, परन्तु वे बच नहीं सके। उन्हें फांसी की सजा दी गई। वे जेलों में ही शूली पर चढ़ा दिए गए।
1927 ई. में जब 9 अगस्त का दिन आया तो सारे देश में शहीदी दिवश मनाया गया। जगह-जगह सभायें की गईं और जुलूस निकाले गये।
लाहौर में ब्रेडला हाल में भी शहीदी दिवश मनाया गया। विद्यार्थियों की ओर से एक सभा का आयोजन किया गया। सभा में भगत सिंह ने भाषण दिया। उन्होंने भाषण में शहीदों की जीवन गाथाओं पर प्रकाश चाला और उनकी वीरता की भूरी-भूरी प्रशंसा की।
भगत सिंह जी के भाषण का विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ा ,पर उस भाषण के बाद वे फिर भारतविरोधी अंग्रेज सरकार की नजरों में गड़ने लगे। उनपर निगाह रखी जाने लगी।
भारतविरोधी सरकार ने भगत सिंह जी का भेद जानने के लिए अपने कई जासूसों को भारत नौजवान सभा का मेम्वर बना दिया।
जासूस प्रतिदिन नौजवान भारत सभा के दफ्तर में जाने लगे और गुप्त रूप से भगत सिंह की गतिविधियों का पता लगाने लगे।
किसी तरह भगत सिंह को यह बात मालूम हो गई कि उनकी बैठकों में कुछ सरकारी जासूस भी सम्मिलित होते हैं। उन्होंने उनसे अपना पीछा छुड़ाने के लिए एक उपाय सोचा।
एक दिन सभी सदस्य दफ्तर में इकट्ठे हुए थे, तो भगत सिंह ने कहा, “आजादी के लिए हममें कष्ट सहन की शक्ति है या नहीं ---आज इसकी परीक्षा ली जाएगी। मैं 5-6 मोमबतियाँ जला रहा हूँ। सबको बारी-बारी से जलती हुई मोमबतियों पर अपना हाथ रखना होगा।”
भगत सिंह ने 5-6 मोमबतियाँ जलाकर एक मेज पर रख दी और सबको एक में मिला दिया। मिलाने से एक अच्छी लपट मोमबतियों से निकलने लगी।
भगत सिंह ने कहा,“सबसे पहले मैं अपना हाथ जलती हुई मोमबतियों की लपट पर रख रहा हूँ।” और उन्होंने अपना दाहिना हाथ लपट के उपर रख दिया। उपर का चमड़ा जल गया,मांस दिखी देने लगा,पर भगत सिंह ने अपने हाथ को नहीं हटाया।
आखिर भगत सिंह के मित्रों ने उन्हें खींचकर अलग किया। उनकी आत्मदृढ़ता को देखकर सभी विस्मित हो गए। गद्दार जासूसों के तो प्राण निकल गए। इन गद्दारों ने उसी दिन से नौजवान भारत सभा के दफ्तर में जाना छोड़ दिया। भगत सिंह ने राहत की साँस ली। उन्होंने ने सोचा, हाथ जला,पर जासूसों से पिंड तो छूट गया।
काकोरी की ट्रेन डकैती के बाद क्राँतिकारियों का दल टूट गया। कुछ लोग तो फांसी पर चढ़ा दिए गय और कुछ लोग छिप गए। क्राँति की आग बुझी तो नहीं पर बहुत ही मन्द पड़ गई।
चारों ओर निराशा छा गई। जो जहां था वहीं छिप कर बैठ गया और दूसरे-दूसरे कामों में लग गया।
भगत सिंह भी बहुत निराश हुए। यद्यपि उनकी नौजवान भारत सभा का काम-काज चल रहा था,पर उनका मन नहीं लग रहा था। अत : वे लाहौर छोड़कर शाहंशाह चक गांव मे चले गए और वहीं रहने लगे।
भगत सिंह जी ने निराशा के गम को भुलाने के लिए एक डेरी फार्म खोला। पर उनका यह डेरी फार्म अधिक दिनों तक नहीं चला क्योंकि उनका मन तो कहीं दूसरी ओर लगा रहता था। उन्हें डेरी फार्म में अधिक नुकशान उठाना पड़ा अत : कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने उसे बन्द कर दिया।
चक ग्राम में रहते हुए भगत सिंह अधिक चिन्तित रहा करते थे। वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के बारे में बराबर सोचविचार किया करते थे। वे सोचा करते थे कि दत्त न जाने कहाँ होंगे और न जाने कहाँ होंगे आजाद। वे जहां भी होंगे क्राँति के लिए अवश्य प्रयत्न करते होंगे क्योंकि वे वीर हैं, साहसी हैं और आत्मत्यागी हैं, पर अकले-अकेले काम करने से क्रांति कैसे हो सकती है ? क्राँति के लिए तो सुदृढ़ संस्था की आवश्यकता है ।जब तक लोग एक साथ नहीं मिलेंगे, संघ-बद्ध होकर काम नहीं करेंगे,तबतक क्रँति के मार्ग पर सफलता नहीं मिल सकती, पर सब लोग एक साथ मिलें तो कैसे मिलें ? इस समय सभी लोग विखरे हुए हैं, किसी को किसी का पता नहीं। तो क्या,मैं चुपचाप चक ग्राम में बैठा रहूँ?मैं बटुकेश्वर दत्त और आजाद को ढूँढूँगा। उनसे मिलकर क्राँतिकारियों की एक मजबूत संस्था बनाने का प्रयत्न करूँगा।
भगत सिंह गाँव से निकल पड़े। वे कानपुर,लखनऊ और बनारस में आजाद को ढूँढते हुए झाँसी पहुँचे। झाँसी में उन्हें आजाद मिल गए। वे उन दिनों गुप्त रूप में झाँसी में ही रहते थे।
दत्त भी झाँसी पहुँच गए थे। दत्त और आजाद को पाकर भगत सिंह को जो प्रसन्नता हुई उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता ।
दत्त, आजाद और भगत सिंह के प्रयत्नों से दूसरे क्राँतिकारी भी झाँसी पहुँच गए। सबने आपस में राय—सलाह करके एक अखिल भारतीय क्राँतिकारिणी संस्था बनाने का निश्चय किया और यह निश्चय किया कि सभी लोग आपस में मिल जायेँ,स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए योजनाबद्ध काम करें।
1927 के दिन थे। सभी क्रांतिकारी दिल्ली के पुराने किले में एकत्र हुए। एक मजबूत संस्था बनाने के लिए विचार-विमर्श होने लगा।
लगभग दो-तीन घंटे तक तर्क-वितर्क और वाद-विवाद चलता रहा। अंत में एक नई संस्था बनाई गई जिसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिशस्ट रिपब्लिकन आर्मी रखा गया।
भगत सिंह को प्रचार का काम सौंपा गया था। चन्द्रशेखर आजाद के जिम्मे धन और शस्त्र-संग्रह का काम था।
आर्मी का दफ्तर पहले झाँसी में खोला गया था,उसके बाद किराये का मकान लेकर आगरा ले जाया गया।
संस्था के पास धन की कमी थी। अत: आर्मी के दफ्तर में रहने वाले क्राँतिकारियों को बड़े कष्ट उठाने पड़ते थे।
उन दिनों प्राय सभी क्रांतिकारी आगरे में ही रहते थे। भगत सिंह भी आर्मी के दफ्तर में ही निवाश करते थे। कभी खाना भरपेट मिलता था तो कभी आधे पेट खा करके ही रह जाना पड़ता था। भेद खुल न जाए---इसलिए बहुत बचकर रहना पड़ता था।
उन दिनों क्रांतिकारियों को जो कष्ट उठाने पड़े उनकी स्मृति मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
भगत सिंह ने अब तक बड़े आराम से जीवन व्यतीत किया था,पर उन्होंने अब देश की आजादी के लिए उन कष्टों को सहन किया। उनके एक मित्र ने उनके कष्ट सहन की चर्चा करते हुए लिखा है, “भगत सिंह भूखे रह जाते थे,पर खाना नहीं माँगते थे। वे अपनी भूख से कहीं अधिक दूसरों की भूख की चिन्ता करते थे।”
संसार की पहली लड़ाई में काँग्रेसी नेताओं ने भारतविरोधी अंग्रेज सरकार की धन-जन से बड़ी सहायता की थी। बजह थी भारतविरोधी सरकार द्वारा इन नेताओं से किया गया वो बायदा जिसके अनुसार इस लड़ाई में अंग्रेजों के जीतने की स्थिति में सता इन कांग्रेसी नेताओं को सौंपी जानी थी।
परन्तु लड़ाई में जीत हो जाने के बाद दुराचारी अंग्रेज अपनी फितरत के अनुशार बायदे से मुकर गए। इन अत्याचारी अंग्रेजों ने भारतीयों को उनके अधिकार देने के बजाए एक कमीशन नियुक्त किया,जिसके अध्यक्ष साइमन था। इसीलिए उस कमीशन को साइमन कमीशन कहा जाता है।
साइमन कमीशन में कुल सात सदस्य थे। राक्षसों की भारतविरोधी ब्रिटिश सरकार ने पहले कहा था कि कमीशन में आधे सदस्य भारतीय होंगे लेकिन एकवार फिर अपनी नीचता दिखाते हुए अत्यचारी भारतविरोधी अंग्रेज सरकार ने एक भी सदस्य भारतीय नहीं रखा वल्कि सबके सब विदेशी अंग्रेज सदस्य नियुक्त किए।
परिणामस्वारूप भारत में कमीशन के विरूद्ध बड़ा रोष फैला। काँग्रेस ने एक प्रस्ताब पास कर निर्णय किया कि कमीशन का बहिष्कार किया जाए।
1928 ई. में ये कमीशन भारत आया । ये कमीशन भारत में जहां भी जाता वहाँ पर इसका वहिष्कार किया जाता। सभायें की जाती, जुलूस निकाले जाते थे और साइमन कमीशन लौट जाओ के नारे लगाए जाते थे।
30 अक्तूवर को साइमन कमीशन लाहौर के स्टेशन पर उतरा। उसका बहिष्कार करने के लिए लाखों नर-नारी लाला लाजपतराय जी के नेतृत्व में स्टेशन के बाहर एकत्र हुए। उनके हाथों में काले झंडे थे। वे गगनभेदी नारे लगा रहे थे—साइमन कमीशन लौट जाओ, साइमन कमीशन लौट जाओ...
गुलाम पुलिस के घुड़सवारों ने जुलूस को आगे बढ़ने से रोक दिया। गगनभेदी नारों को सुनकर गुलाम पुलिस अपनी योजनानुशार डंडे लेकर लोगों पर टूट पड़ी।
कितने ही निर्दोष घायल हो गए,कितने ही गिर पड़े। चीख-पुकार मच गई,भगदड़ होने लगी।
एक अंग्रेज ने आगे बढ़कर लाला जी पर डंडे से वार किया।डंडा लाला जी की छाती में लगा और वे गिर पड़े, मूर्छित हो गए।
लाला जी को उठाकर अस्पताल ले जाया गया। उन्हें बचाने के सब प्रयत्न असफल हो गए। वे 27 नवम्बर को संसार से चलबसे।
लाला जी की मृत्यु का शोक सारे देश में फैल गया, युबकों के ह्रदय में तेजना की लैहर दौड़ पड़ी। आर्मी के सदस्यों का खून खौल उठा। उन्होंने निश्चय किया कि लाला जी की मृत्यु का बदला लिया जाएगा।
लाहौर में ही आर्मी के सदस्यों की बैठक बुलाई गई। विचार-विमर्श होने लगा। सभी सदस्य इस बात पर सहमत थे कि लाल जी की मृत्यु का बदला अंग्रेज स्काट और सैंडरस को मारकर लेना चाहिए क्योंकि ये ही लोग लाला जी की मृत्यु के जिम्मेदार थे। सैंडर्स और स्काट की हत्या का काम जिन तीन वीर क्रांतिकारियों ने अपने हाथों में लिया। उनके नाम थे---भगत सिंह, राजगुरू और चन्द्रशेखर आजाद।
भगत सिंह, राजगुरू और चन्द्रशेखर---तीनों वीरों ने सैंडर्स को मारने की योजना बनाई। पहले उनकी योजना थी कि, वे सैंडर्स को मारकर गुलाम पुलिस से लड़ते हुए अपनी जान देंगे, पर यह योजना सफल न हो सकी। उन्होंने सैंडर्स की हत्या तो की पर उन्हें गुलाम पुलिस से लड़ने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ।
27 दिसम्बर का दिन था । चार बज रहे थे। सैंडर्स अपने दफ्तर से बाहर निकला और जाने के लिए मोटर साईकल पर सवार हुआ। उसने ज्यों ही मोटरसाइकिल स्टार्ट की, धाँय-धाँय,धाँय करके तीन गोलियां चली।
गोलियाँ सैंडर्स के सीने को पार कर गईं। सैंडर्स घटनास्थल पर गिरकर प्राणसून्य हो गया। गोलियां स्वयं भगत सिंह जी ने चलाई थीं।
गोलियों की आबाज सुनकर फर्न बाहर निकला। राजरगुरू ने उसपर पिस्तौल तान दी। वह डरकर फिर दफ्तर में भाग गया।
गद्दार सेकुलर कानस्टेवल चानान सिंह ने भगत सिंह जी का पीछा किया ,पर राजगुरू ने उसका भी काम-तमाम कर दिया।
चारों ओर सन्नाटा छा गया। भगत सिंह, राजगुरू और चन्द्रशेखर---तीनों वीर दौड़ते हुए डी. ए. वी. कालेज के छात्रास में घुस गए। कुछ देर तक वहां रूके रहे, फिर साइकल पर बैठकर अपने-अपने निवास स्थान पर चले गए।
उनके चले जाने पर गुलाम पुलिस दल ने चारों ओर से छात्रावास को घेर लिया। हर एक कमरे की तलासी ली गई पर कोई सुराग न मिला।
इसके बाद तो सारे लाहौर नगर में गुलाम पुलिस छा गई। जगह-जगह तलाशियां होने लगीं, छापे मारे जाने लगे। हर चौराहे और हर नुक्कड़ पर गुलाम पुलिस तैनात कर दी गई। हर एक मोटर और हर एक ताँगे की तलासी ली जाने लगी। होटलों और धर्मशालाओं को भी नहीं छोड़ा गया।
स्टेशन पर भी खुफिया गुलाम पुलिस तैनात कर दी गई। जो भी आदमी पुलिस स्टेशन जाता था उससे पूछताछ की जाती थी।
बिना पूछ-ताछ किए किसी को रेल में चढ़ने नहीं दिया जाता था। इस तरह भगत सिंह, राजगुरू और चन्द्रशेखर आजाद को गिरफतार करने के लिए गुलाम पुलिस एड़ी-चोटी का पसीना एक करने लगी फिर भी वे तीनों क्राँतिकारी वीर गुलाम पुलिस के हाथ नहीं लगे, नहीं लगे।
भगत सिंह, राजगुरू और चन्द्रशेखर लाहौर में रूकना नहीं चाहते थे क्योंकि लाहौर में चारों तरफ गुलाम पुलिस का जाल विछ चुका था। यद्यपि ये तीनों न गिरफ्तारी से डरते थे और न मृत्यु से ,फिर भी वे गुलाम पुलिस के फंदे में फंसना नहीं चाहते थे। उनके सामने देश की आजादी का प्रश्न था। वे देश को आजाद करवाने के लिए अभी जेल से बाहर रहना चाहते थे। अत: वे लाहौर से बाहर निकल जाने के लिए उपाय सोचने लगे।
आखिर भगत सिंह ने अपने मित्रों से उपाय करके एक उपाय ढूँढ निकाला ।उनका यह उपाय बहुत साहसी और विस्मयजनक था।
लाहौर स्टेशन के प्लेटफार्म पर कलकता जाने के लिए गाड़ी तैयार थी। स्टेशन के बाहर एक अमेरिकन कार पहुँची। कार में से एक साहब अपनी मेम और अर्दली के साथ निचे उतरे। साहब और मेम देखने में विल्कुल अमेरिकन की तरह मालूम हो रहे थे। अर्दली, अर्दली के वेश में था।
गुलाम पुलिस इन्स्पेक्टर सामने ही खड़ा था। वह सलाम करके सामने से हट गया।
साहब अपनी मेम और अर्दली के साथ फर्स्ट क्लास के डिब्बे में घुस गए। अर्दली उन्हें फर्स्ट कलास के डिब्बे में बिठाकर स्वयं सेकेण्ड क्लास में चला गया।
गाड़ी सीटी देकर चल पड़ी।
अमेरिकन साहब के वेश में स्वयं भगत सिंह जी थे। मेम का वेश दुर्गा भाभी ने धारण किया था। अर्दली राजगुरू बने थे।
इस तरह भगत सिंह गुलाम पुलिस की आँखों में धूल झोंककर राजगुरू के साथ लाहौर से निकल गए। रास्ते में दो-तीन दिनों तक अमृतसर में रूके रहे,उसके बाद कलकता चले गए। चन्द्रशेखर आजाद जी भी तीर्थयात्री के वेश में गुलाम पुलिस को चकमा देकर लाहौर से बाहर निकल गए।
भगत सिंह जी जब कलकता पहुँचे तब कहीं जाकर गुलाम पुलिस को पता चला कि पक्षी पिंजरे से उड़ गया।
भगत सिंह जी के कलकता पहुँचने पर बंगाल के क्रांतिकारियों में हर्ष की लहर दौड़ पड़ी। उन्होंने बड़े आदर के साथ कलकता में उनके रहने का प्रबन्ध किया।
भगत सिंह और राजगुरू कलकता में रहकर विपल्व की आग जलाने लगे। क्राँति के लिए गुप्त रूप से प्रयत्न करने लगे। पर बंगाल के क्रांतिकारी उनके दल में सामिल होने के लिए तैयार नहीं हुए। वे अलग रहकर ही स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न करना चाहते थे।
कलकता में रहते हुए भगत सिंह जी ने महसूस किया कि बंगाल के क्राँतिकारियों के पास बम है। पर पंजाब और उतर प्रदेश के क्राँतिकारियों के पास बम नहीं है। अत: वे किसी एसे आदमी की तलाश करने लगे,जो बम बनाना जानता हो और जो उतर प्रदेश तथा पंजाब के क्राँतिकारियों को बम बनाना सिखा सके।
बड़ी कठिनाईयों के बाद भगत सिंह जी को एक ऐसा आदमी मिल गया। पहले तो बह पंजाब और उतर प्रदेश के क्रान्तिकतारियों को बम बनाना सिखाने के लिए तैयार नहीं हुए लेकिन भगत सिंह जी द्वारा बहुत आग्रह करने पर बह बम बनाना सिखाने के लिए तैयार हो गया।
भगत सिंह उसे साथ लेकर राजगुरू के साथ आगरा चले गए। पहले बम बनाने का कारखाना आगरा में खोला गया और फिर उसके बाद लाहौर में भी खोला गया।
क्रान्तिकारियों को अब धन की कमी नहीं थी। भगत सिंह ने सैंडर्स की हत्या करने में जो वीरता दिखाई थी उससे उनका नाम जनता में चारों ओर फैल चुका था। क्रान्तिकारियों की वीरता और उनके साहस पर जनता मुग्ध हो चुकी थी। अत :
वे जिससे भी पैसा मांगते थे मिल जाता था। बड़े-बड़े व्यापारी उन्हें चन्दा दिया करते थे।
क्रान्तिकारियों का काम अब बड़े जोरों के साथ चलने लगा। रोज कुछ न कुछ होता ही रहता था। आज इस नगर में बम धमाका हुआ तो कल उस नगर में । भारतविरोधी अंग्रेज सरकार के कान खड़े हो गए और वह हाथ धोकर क्रान्तिकारियों के पीछे पड़ गई।
1929 के दिन थे । मुम्बई में मिल मालिकों और मजदूरों का झगड़ा चल रहा था। साम्यवादी मजदूरों की सहायता कर रहे थे और भारतविरोधी सरकार लाठियों तथा गोलियों से मजदूरों को दबा रही थी।
भारतविरोधी सरकार मजदूरों और किसानों को उभरना नहीं देना चाहती थी। उसे डर था कि अगर कहीं मजदूरों और किसानों में क्रान्ति की लहर फैल गई तो उन्हें सँभालना कठिन हो जाएगा और भारतविरोधी सरकार के सामने एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी।
भारतविरोधी सरकार ने पब्लिक सेफ्टी बिल के नाम से मजदूरों को दबाने के लिए एक काला कानून बनाने का निश्चय किया।
दल की बैठक बुलाई गई। काफी सोच-विचार के बाद निश्चय किया गया कि केन्द्रीय असेम्बली के हाल में बम फैंककर बिल का विरोध किया जाए। बम का उदेश्य किसी की हत्या करना नहीं वल्कि भारतविरोधी सरकार को चेतावनी देना है।
असेम्बली हाल में बम फेंकने का काम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के सुपुर्द किया गया।
1929 ई. की 8वीं अप्रैल का दिन था। असेम्बली हाल में पब्लिक सेप्टी बिल पर विचार हो रहा था,बहस चल रही थी। सहसा हाल में बम का धमाका हुआ। बम दर्शकों की गैलरी से फेंका गया था।
सारा हाल धुएँ से भर गया। लोग इधर-उधर भागने लगे। कुछ लोग अपनी-अपनी मेजों के निचे छिप गए। गुलाम पुलिस गैलरी की ओर दौड़ पड़ी। गैलरी में दो युबक खड़े होकर मुस्करा रहे थे। उनमें से एक भगत सिंह जी व दूसरे बटुकेश्वर दत्त जी थे।
वे चाहते तो भाग सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उनका काम अब पूरा हो चुका था। वे भारतविरोधी सरकार को चेतावनी देना चाहते थे और वह अब दे चुके थे।
गुलाम पुलिस को भगत सिंह के पास जाने का सहास नहीं हो रहा था। गुलाम पुलिस को भयभीत देखकर दोनों ने अपने-अपने हाथ उपर उठा दिए। गुलाम पुलिस ने आगे बढ़कर दोनों युबकों को गिरफ्तार कर लिया। उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जब बन्दी रूप में बाहर लाए गए तो इन्कलाब जिन्दाबाद, भगत सिंह जिन्दाबाद के नारों से वायुमण्डल गूँज उठा। उन नारों को सुनकर अंग्रेजों का ह्रदय ही नहीं वल्कि असेम्वली हाल की दीबारें भी काँप उठीं तो आश्चर्य नहीं।
भगत सिंह जी ने असेम्वली हाल में बम फैंकने के साथ ही बहुत से पर्चे भी फैंके थे। उन पर्चों पर आर्मी का चिन्ह और झण्डा बना हुआ था। उनमें लिखा था, “हमने किसी को मारने के उद्देश्य से बम नहीं फैंका है। हमने बहरों को यह बताने के लिए बम फैंका है कि पब्लिक सेप्टी बिल एक काला कानून है जो मजदूरों के रक्त का शोषण करेगा। हमने बम फैंककर इस काले कानून का विरोध किया है।”
भगत सिंह जी ने जब देश के नागरिकों को अंग्रेजों की गुलामी से सचेत करने के लिए बम फैंक था उस समय उस हाल में अंग्रेजों के पीठलगू मोती लाल नैहरू भी मौजूद था। इसके अतिरिक्त मदन मोहन मालवीय व वी. जी. पटेल भी वहाँ पर मौजूद थे।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को बन्दी के रूप में दिल्ली की जेल में ले जाया गया। जेल में उन्हें अलग-अलग कमरों में रखा गया,उनपर बड़ी कड़ी निगरानी रखी जाती थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जी को पहले तो छोटी अदालत में ले जाया गया लेकिन उन्होंने छोटी अदालत में बयान देने से मना कर दिया।
इसके बाद भगत सिंह जी और बटुकेशवर दत्त जी को सेशन जज के सामने पेश किया गया। दोनों वीर क्राँतिकारियों ने एक लिखित बयान दिया। बयान पर दोनों के हस्ताक्षर थे। भगत सिंह जी व बटुकेशवर दत्त जी ने अपने लिखित बयान में दुराचारी व अत्याचारी अंग्रेजों की पोल खोली था। उन्होंने अहिंसा के नाम पर कांग्रेसी नेताओं के देशविरोधी–अंग्रेज समर्थक रूख की कड़ी निंदा की थी। उन्होंने कहा था “हमने असेम्बली हाल में किसी की हत्या के उदेश्य से बम नहीं फैंका है। अगर हमारा उदेश्य किसी की जान लेना होता तो हम शक्तिशाली बम फैंकते। हमने असेम्वली हाल में अंग्रेजी भारतविरोधी सरकार को चेतावनी दी है कि उसके अत्याचार अब बहुत दिनों तक चलने वाले नहीं। अब भारत के युबक आगे आ गए हैं। वे भारतविरोधी सरकार के अत्याचारों का अन्त करके रहेंगे, भारत को गुलामी के फन्दे से छुड़ाकर रहेंगे। ”
भगत सिंह जी और बटुकेशवर दत्त जी के बयान को भारतविरोधी सरकार ने अपनी तरफ से जब्त करने की कोशिश की लेकिन इससे पहले ही ये बयान समाचारपत्रों में छप गया। आर्मी ने इसकी लाखों कापियां छपवाकर वितरित कीं। इसकी कापियां देश में ही नहीं अपितु विदेश में भी बाँटी गईं।
सेसन जज के सामने बयान देने के बाद भगत सिंह जी पर दो और अपराध लगाय गये—एक तो सैंडर्स की हत्या का और दूसरा लाहौर क्रान्ति का। जिसमें कई बड़े-बड़े दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों को जान से मार डालने और शासन को उलटने की योजना थी। बटुकेशवर दत्त जी को उन दोनों अपराधों में सम्मिलित नहीं किया गया था। वे केवल असेम्बली हाल में बम फैंकने के अपराधी माने गए थे।
भगत सिंह जी पर जब दो और आपराध लगाए गए तो उन्हें दिल्ली की जेल से मियांवाली की जेल में ले जाया गया,क्योंकि वे दोनों अपराध लाहौर से ही सम्बम्ध रखते थे और उनका मुकदमा वहीं चल सकता था।
उन दिनों जेलों में राजनीतिक बन्दियों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। उन्हें कंकड़-पत्थर मिला हुआ खाना दिया जाता था। फलत : वे बीमार हो जाते थे। कुछ तो मर जाते थे,और कुछ का शरीर सदा के लिए खराब हो जाता था।
भगत सिंह जी के कानों में जब ये खबरें पड़ीं, तो वे काँप उठे। उन्होंने राजनीतिक बन्दियों की दशा सुधारने के उद्देश्य से भूख हड़ताल करने का निश्चय किया। उन्होंने इसकी सूचना भारतविरोधी सरकार को भी दे दी। उन्होंने भारतविरोधी सरकार के सामने कुछ मांगे भी रखीं,जिनमें कुछ इस प्रकार हैं
1) राजनीतिक बन्दियों को अच्छा खाना दिया जाए।
2) राजनीतिक बन्दियों को आपस में मिलने दिया जाए।
3) राजनीतिक बन्दियों को पढ़ने के लिए पत्र और पुस्तकें दी जांयें।
4) राजनीतिक बन्दियों को उनके घर वालों से मिलने दिया जाए।
पर भारतविरोधी सरकार ने भगत सिंह जी की मांगों पर ध्यान नहीं दिया । पलत: उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी। उनकी भूख-हड़ताल से दूसरे कैदी भी प्रभावित हुए। वे भी उनकी सहानुभूति में भूख-हड़ताल करने लगे।
भगत सिंह जी की भूख हड़ताल से सारे देश में बहुत खलबली मची। देश के बड़े-बड़े नेता भारतविरोधी सरकार पर दबाब डालने लगे कि भगत सिंह जी की माँगों को मान ले। भारतविरोधी सरकार को आशा थी कि भूख हड़ताल कुछ ही दिनों में खत्म हो जाएगी,पर जब पूरा महीना बीत गया और हड़ताल जोर पकड़ने लगी, तो भारतविरोधी सरकार को झुकना पड़ा। भारतविरोधी सरकार ने भगत सिंह जी की मांगे मान लीं। फलस्वरूप भगत सिंह जी ने भूख हड़ताल समाप्त कर दी।
जिन दिनों भगत सिंह जी मियांवली की जेल में भूख हड़ताल पर थे, उन्हीं दिनों लाहौर की जेल में यतीन्द्रनाथ जी जी भूख-हड़ताल कर रहे थे। उनकी हालत बहुत खराब हो गई थी।1929 की 27वीं जुलाई को उनकी हालत चिन्ताजनक हो गई।
देश के बड़े-बड़े नेताओं ने यतीन्द्रनाथ जी से आग्रह किया कि वे भूख-हड़ताल खत्म कर दें, पर उन्होंने किसी की बात नहीं मानी। ऐसा लगा कि उनके प्राण-तन्तु टूट जायेंगे।
आखिर भगत सिंह जी से कहा गया कि वे यतीन्द्रनाथ जी दास को भूखहड़ताल समाप्त करने को राजी करें।
भगत सिंह जी को मियांवली जेल से लाहौर पहुंचाया गया। उन्होंने यतीन्द्रनाथ जी दास को भूख हड़ताल समाप्त करने के लिए राजी कर लिया। उन्होंने भारतविरोधी सरकार को भी इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह यतीन्द्रनाथ दास जी को विना किसी शर्त के छोड़ देगी।
यतीन्द्रनाथ दास जी ने अपनी भूख हड़ताल समाप्त कर दी। एक दिन एक बड़े नेता ने उनको पूछा, “जिस काम को आपने बड़े-बड़े नेताओं के कहने पर नहीं किया था, उस काम को भगत सिंह के कहने से क्यों किया?”
यतीन्द्रनाथ दास जी ने उत्तर दिया, “भगत सिंह जी महान क्रांतिकारी हैं, महानदेशभक्त और वीर हैं। उनके कहने से भूखहड़ताल क्या, मैं अपने प्रणों का भी परित्याग कर सकता हूँ।”
यतीन्द्रनाथ दास जी ने तो भूख-हड़ताल समाप्त कर दी पर भारतविरोधी सरकार ने अपनी नीचता एक वार फिर प्रकट करते हुए अपने बायदे का पालन न कर उन्हें जेल से रिहा नहीं किया।
फलत: जेल में रहने वाले सभी क्राँतिकारी क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने पुन: भूख-हड़ताल शुरू कर दी।
कुछ ही दिनों के बाद यतीन्द्रनाथ दास जी ने शरीर छेड़ दिया। सारे देश में उतेजना की लहर दौड़ पड़ी। लोग अत्याचारी अंग्रेज सरकार की निंदा करने लगे।
भगत सिंह जी और बटुकेश्वर दत्त जी की भी हालत खराब होने लगी। उनकी भूख हड़ताल काफी दिनों तक चली व अब तक हुई भूख हड़तालों के रिकार्ड टूट गए।
सारे देश में जोश पैदा हो गया। बड़े-बड़े नेता भारतविरोधी सरकार की निंदा करने लगे और भगत सिंह जी से निवेदन करने लगे कि वे भूख हड़ताल खत्म कर दें।
हालत बिगड़ती देखकर भारतविरोधी सरकार को झुकना पड़ा। भारतविरोधी सरकार ने भगत सिंह जी की बातें मान लीं और भगत सिंह जी ने भूख-हड़ताल समाप्त कर दी।
भगत सिंह जी ने जब हड़ताल खत्म कर दी तो उनपर जेल में ही मुकद्दमा चलाया जाने लगा। उन पर सबसे बड़ा जो आरेप लगाया गया ,वह लाहौर क्राँति का था। क्राँतिकरियों की कुल संख्या सोलह थी।
मुकद्दमे की कार्यवाही को देखने के लिए बाहर के किसी आदमी को आज्ञा नहीं थी। भगत सिंह जी ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा, “जब तक मुकद्दमे की कार्यवाही को देखने के लिए जनता को नहीं आने दिया जायेगा, वे अदालत में उपस्थित नहीं होंगे।”
काफी तर्क-वितर्क और वाद-विवाद के बाद भारतविरोधी सरकार ने भगत सिंह जी की बात मान ली।
अदालत में मुकद्दमा शुरू हुआ। मुकद्दमे की कार्यवाही को देखने के लिए हजारों स्त्री-पुरूष उपस्थित होते थे। इन्कलाब-जिन्दाबाद के नारों के साथ क्राँतिकारी अदालत में प्रवेश करते थे। मुकद्दमे की विशेषता यह थी कि सभी अभियुक्त गवाहों से स्वयं जिरह करते थे।
जयगोपाल सरकारी गवाह बन गया था । एक दिन उसने क्रान्तिकारियों को कुछ बुरा-भला कहा। उसके शब्दों को सुनकर एक क्रांतिकारी से रहा न गया उसने इस पर चप्पल फैंक दिया।
इसके परिणामस्वारूप गुलाम अदालत ने क्रांतिकारियों को हथकड़ी पहनाकर लाने व गुलाम अदालत में भी हथकड़ी पहनाकर ही रखने के आदेश दे दिए।
भगत सिंह जी ने गुलाम अदालत के इन आदेशों का विरोध किया। उन्होंने कहा, जब तक गुलाम अदालत अपनी इस आज्ञा को वापस नहीं लेगी, वे अदालत में नहीं जायेंगे।
दूसरे दिन गुलाम पुलिस जब भगत सिंह को गुलाम अदालत ले जाने के लिए गई, तो उन्होंने इन्कार कर दिया। बड़े प्रयत्नों के बाद किसी तरह इस शर्त पर , कि गुलाम अदालत अपना आदेश वापस ले लेगी, पाँच आदमी अदालत ले जाए जा सके।
पर अदालत ने अपनी आज्ञा वापस नहीं ली। फलत: तीसरे दिन सभी क्राँतिकारियों ने अदालत जाने से इनकार कर दिया। क्राँतिकारियों के ले जाने के लिए गद्दार पठान सैनिक बुलाए गए । जब क्राँतिकारियों ने सैनिकों की बात नहीं मानी तो उन्हें बहुत मारा-पीटा गया। उन्हें मार-पीट कर कोठरी में बन्द कर दिया गया। कोठरियों के भीतर भी उन्हें बहुत मारा पीटा गया।
भगत सिंह जी को सबसे अधिक चोट पहुंचाई गई थी क्योंकि वे ही इन सब क्राँतिकारियों के नेता थे।
मार-पीट की खबर जब बाहर पहुंची तो सारे लाहौर नगर में उतेजना फैल गई। जनता ने एक बहुत बड़ी सभा करके भारतविरोधी सरकार की क्रूरता की नंदा की। केवल लाहौर ही नहीं सारे देश में भारतविरोधी सरकार की क्रूरता की निंदा की गई। जनता के दबाब को देखकर मोतीलाल नैहरू जैसे क्राँति विरोधी बड़े-बड़े नेता लाहौर जेल में गय और भगत सिंह और उनके साथियों से मिलकर उनका हाल-चाल पूछा।
भारतविरोधी सरकार भयभीत हो उठी उसने सोचा कि कहीं इस कांड को लेकर भारत में विप्लव न हो जाए।अत: उसे दबाने के लिए एक आरेडिनैंस निकाला। यह आर्डिनैंस लाहौर षडयन्त्र आर्डिनैंस के नाम से प्रसिद्ध है।
परिणाम उल्टा हुआ। आर्डिनैंस जारी होने पर लाहौर- क्राँति के मुकद्दमे की चर्चा देश में ही नहीं विदेशों में भी फैल गई। लाहौर क्राँति मुकद्दमा क्या है इस बात को जानने के लिए विदेशों के लोग भी उत्सुक हो उठे। देश के लोगों की सहानुभूति तो क्राँतिकारियों के साथ थी ही विदेशियों के मन में भी क्राँतिकारियों के प्रति सहानुभूति पैदा हो उठी।उन्हें छुड़ाने के लिए देश-विदेश सभी स्थानों ने चन्दा आने लगा । केवल चन्दा ही नहीं अबाजें भी उठने लगीं कि भगत सिंह और उनके साथियों को छोड़ जिया जाए,पर क्या भारतविरोधी सरकार के ह्रदय पर कुछ प्रभाव पड़ा? नहीं कदापि नहीं।
मुकद्दमे के दिनों में भगवतीचरण जी ने भगत सिंह जी को छुड़ाने का प्रयत्न किया था।उन्होंने एक योजना बनाई कि बम फैंककर जेल की दीवार को तोड़ दिया जाए और भगत सिंह जी को छुड़वा लिया जाए। भगवती चरण जी की यह योजना सफल नहीं हो सकी। बम समय से पहले ही फट गया और भेद खुल गया।
सरदार भगत सिंह जी और उनके साथियों को छुड़ाने का प्रयत्न किया गया पर सफलता नहीं मिल सकी। क्योंकि भारतविरोधी सरकार ने उन्हें हर हाल में फाँसी पर चढ़ाने का निर्णय कर लिया था। सारे देश की इच्छाओं और भावनाओं को कुचलते हुए गुलाम अदालत ने अपना फैसला सुना दिया। फैसले में भगत सिंह जी ,शिवराम जी और राजगरू जी को फाँसी की सजा दी गई थी।बटुकेश्वर दत्त सहित अन्य क्राँतिकारियों को काले पानी के दंड से दंडित किया गया। सारे देश में इस फैसले का विरोध किया गया। देश के कई बड़े नेताओं ने तार भेजकर वाइसराय से प्रार्थना की कि वे अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर फैसले को बदल दें, पर वाइसराय पर कि प्रभाव नहीं पड़ा। प्रिवीकौंसिल में अपील भी की, पर कुछ नहीं निकला।फाँसी की सजा बनी रही।फाँसी की सजा से दंडित किए जाने पर तीनों वीर क्राँतिकारी अपनी-अपनी कोठरी में बन्द कर दिए गए। तीनों बड़े प्रसन्न रहते थे। दिन रात वन्देमातरम् के गीत गाया करते थे व उस दिन की प्रतीक्षा किया करते थे जब वे देश की आजादी के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ जायेंगे।
फाँसी की सजा से पहले भगत सिंह जी के पिता ,उनकी माँ, उनकी दादी और अनेक रिस्तेदार उनसे मिलने के लिए गए थे। उनकी आँखें भरी हुई थीं। भगत सिंह जी ने उन्हें समझाते हुए कहा,“एक दिन मरना तो था ही । कितने हर्ष की बात है कि हम देश के लिए मर रहे हैं। अत: मेरी मृत्यु पर किसी को आँसू नहीं बहाना चाहिए; सबको प्रसन्न होना चाहिए।”
फाँसी देने का दिन 1931ई. की 24वीं मार्च निश्चित किया गया था, 23वीं मार्च को ही संध्या के बाद तीनों वीर क्राँतिकारियों को सूचित किया गया कि थोड़ी देर के बाद फांसी दी जाएगी।
भगत सिंह जी ने जेलर से कहा, “क्यों जेलर साहब , अंग्रेज सरकार कानून क्यों तोड़ रही है? फाँसी का दिन तो 24 मार्च निश्चित किया गया था।भारतविरोधी सरकार एक दिन पहले ही हमें क्यों फाँसी दे रही है?”
जेलर साहब उतर देते तो क्या देते?
सच तो यह था कि भारतविरोधी सरकार को डर था कि कहीं देश में क्राँति न फैल जाए। अत: उसने एक दिन पहले ही चुपचाप फाँसी देने का निश्चय किया।
रात के सात बजकर 33 मिनट हो रहे थे। तीनों वीर योद्धा वन्देमातरम् के गीत गाते हुए अपनी कोठरी से बाहर निकले । तीनों इन्कलाब जिन्दाबाद के नारों के साथ फाँसी के तख्ते पर चढ़ गए और कुछ सेकेंड में ही वे अनन्त दूरी पार करके स्वर्ग चले गए।
रात में ही तीनों वोरों को रावी नदी के किनारे ले जाया गया।एक ही चिता पर तीनों को मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया।
सवेरे जब यह खबर नगर में फैली तो लाखों नर-नारी रावी के किनारे की ओर दौड़ पड़े। चिता की धरती अब भी गरम थी।
नर-नारियों की आँखों में आँसू बरस रहे थे। भगत सिंह जिन्दाबाद, राजगरू जिन्दाबाद, शिवराम जिन्दाबाद, के नारों से आकाश गूँज रहा था।कोई चिता की राख ले जा रहा था, तो कोई मिट्टी कुरेद रहा था।वह दृश्य बहुत ही करूणिक था, बड़ा ही पीड़ाजनक था।
तीन दिनों तक लगातार लाखों नर-नारी इकट्ठे होते रहे,अपने आँसुओं से उस धरती को धोते रहे।
अब भी जब 23 मार्च का दिन आता है,तो लाखों नर-नारी उस जगह इकट्ठे होते हैं और भगत सिंह जी की याद में अपनी आँखों के बगीचे के फूल उस जगह बिखेरते हैँ।यह क्रम चुगों-युगों तक चलता रहेगा। क्योंकि भगत सिंह और उनके साथी अपने पबित्र बलिदान से देवता की भाँति वन्दनीय बन गए हैं।
व्यथित ह्रदय जी की पस्तक -1992
अमर शहीद : सरदार भगत सिंह
से अधिकतर जानकारी ली गई।
व्यथित ह्रदय जी का हार्दिक धन्यवाद।